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________________ ( 41 ) नाड़ी में प्रविष्ट हो उनके विपुल विग्रह में फैलकर उसका उचित श्राप्यायन और उद्दीपन कर देता है। अत एव इस देश के यथार्थदर्शी ऋषियों ने अर्घ्यदान को नित्यकर्म के रूप में प्रचलित किया था / जब तक अर्घ्यदान यथासमय, यथाविधि सूर्य को दिया जाता रहा तब तक उस जल से संवर्धित, पोषित एवं प्रीत सूर्यदेव की निर्दोष पोषक किरणें अपने सम्पर्क से पृथ्वी के खाद्य-पेय पदार्थों में पुष्ट रस का अाधान कर मानव को स्वास्थ्य, नैरुज्य और दीर्घायु का दान बराबर करती रही हैं। मार्कण्डेय पुराण में प्राप्त होने वाली सूर्य के सम्बन्ध की उपर्युक्त चर्चाओं से सूर्य के तीन रूपों का परिचय प्राप्त होता है / एक तो अाकाश में आँखों से दिखाई देने वाला गोलाकार किरणमय महान् तेजःपुञ्ज / दूसरा वह, जो उपासकों की स्तुतियाँ और प्रार्थनायें सुन प्रसन्न होता है / उनके नियम, व्रत, नमन, पूजन से तुष्ट हो दर्शन और वरदान देता है। अदिति के गर्भ से जन्म ले दैत्यों का संहार करता है / विश्वकर्मा की पुत्री से विवाह कर वैवस्वत मनु जैसी सन्तान पैदा करता है / और तीसरा वह, जो वेद, पुराण आदि समस्त शास्त्रों का प्रतिपाद्य, त्रिगुणात्मिका प्रकृति का अधीश्वर, समस्त विश्वप्रपञ्च का अधिष्ठान, परात्पर, शुद्ध, शाश्वत, सच्चिदानन्द ब्रह्म है / इस विषय में बहुतों को यह सन्देह हो सकता है कि एक ही सूर्य के परस्परविरोधी ये तीन रूप कैसे हो सकते हैं 1 एक वस्तु का कोई एक ही रूप हो सकता है / या तो वह केवल जड़ भूतों का एक पुञ्जमात्र ही हो सकता है, या व्यवहारक्षम शरीरधारी कोई चेतन ही हो सकता है, या तो फिर व्यवहारातीत निर्गुण ब्रह्म ही हो सकता है / एक ही वस्तु सब कुछ कैसे हो सकती है ? ऐसा सन्देह करने वाले सज्जनों से केवल यही निवेदन करना है कि ऐसे सन्देह, पौराणिक दृष्टि का, जो वस्तु को समझने की एकमात्र यथार्थ दृष्टि है, परिचय न होने के कारण ही होते हैं / अतः इनके निराकरणार्थ पौराणिक दृष्टि को समझना आवश्यक है। पौराणिक दृष्टि के तीन प्रकार है-आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक। आधिभौतिक दृष्टि वह है जो वस्तु के केवल बाह्य रूप को देखती है, जिसे प्रत्येक वस्तु के भीतर अवस्थित चेतन तत्त्व का दर्शन नहीं होता / उसके अनुसार सूर्य सचमुच तेज का एक गोलाकार पिण्डमात्र ही है। पर आधिदैविक दृष्टि इससे भिन्न है / वह इसके आगे बढ़ती है। वह जड़ वस्तुओं के भीतर घुस उसके अधिष्ठाता अधिदैव का पता लगाती है और इस तथ्य पर पहुँचती है कि जगत में भूतों का जो कोई भी संघात बनता है उस प्रत्येक का कोई न कोई एक आधार
SR No.032744
Book TitleMarkandeya Puran Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1962
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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