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________________ ( 26 ) चैतन्य का त्रिगुणात्मक अविद्या रूप आवरण ही विष्णुकर्ण का मल है। इस मल से उद्भूत होनेवाला अहम्बोध और बहुभवन की इच्छा ही मधु, कैटभ नाम के असुर हैं / इनके द्वारा मन को संसारोन्मुख बनाने का उपक्रम ही ब्रह्मा को मारने के लिये मधु, कैटभ का उद्यत होना है। इस संकट की स्थिति में मन रूप ब्रह्मा चिन्मयी महामाया की यदि पुकार करता है तो वे प्रसन्न हो चैतन्यात्मक विष्णु की आवरण रूप निद्रा का भङ्ग कर देती हैं / फिर अनावृत चैतन्य रूप प्रबुद्ध विष्णु अहंबोध तथा बहुभवनाभिलाष-रूप मधु, कैटभ का वध करते हैं और तब मन का मार्ग निष्कण्टक हो जाता है / वह संसारोन्मुखता को त्याग अध्यात्म के उन्मुख हो अपनी सफल यात्रा में समर्थ होता है / ऐसे ही एक दूसरे प्रकार से भी इस कथा को समझा जा सकता है। जैसे मित्य और अनित्य का विवेक लुप्त हो जाने से, विहित तथा निषिद्ध के विवेचन की क्षमता खो जाने से एवं जीवन की पूर्वोत्तर अवस्था की स्पष्ट तथा सत्य कल्पना का लोप हो जाने से समस्त जगत को किसी एक एकाङ्गी दृष्टि से ही देखे जाने का नाम जगत का एकार्णवीभाव है / जैसे सामान्य जन अर्णव को केवल एक अगम अगाध जलराशि मात्र समझता है / उसके भीतर के रत्न, मणि, मुक्ता आदि बहुमूल्य पदार्थो का उसे कोई पता नहीं होता। उसी प्रकार यह संसार भी उसे एकमात्र अनित्यात्मक ही प्रतीत होता है / उसे उस सनातन सत्य अद्वय तत्त्व का, जिसके असीम कलेवर पर यह विपुल विश्व चित्रित हुअा है, कोई आभास नहीं होता / बस, इसी दृष्टि से देखे जाते हुये जगत को ही एकार्णवीकृत जगत कहा जाता है / व्यापक होने से जीव ही यहाँ विष्णु शब्द से कथित हुआ है। प्रलय काल में भी शेष रह जाने. से जीव के शुभाशुभ कर्मों को ही शेष कहा गया है / अतः शेष पर विष्णु के शयन करने का अर्थ है कर्मों के फल भोग में फँस कर बेसुध हो जाना, असावधान हो जाना। अध्यात्म के अभिमुख उठने तथा अग्रसर होने की चेष्टा करनेवाला मन ही ब्रह्मा है। उसे अध्यात्म के मार्ग से गिरा, संसार की अोर उसका आकर्षण करना ही उसका हनन है / यह होता है राग और द्वेष से / अतः राग और द्वष ही मन रूप ब्रह्मा का हनन करनेवाले मधु और कैटभ हैं, जिनका जन्म विष्णुकर्ण के मल से अर्थात् कर्म-फलासक्ति की निद्रा में पड़ असावधान हुए जीव के कानों की मैल से होता है। यह मैल क्या है ? यह है संसारी जीव के मित्रम्मन्य लोगों का सम्मतिवाक्य / कहने का अभिप्राय यह है कि जब मनुष्य नित्यानित्य का विवेक खोकर प्रयोमात्रदृष्टिक हो कर्म के फल-भोगों में फंस असावधान हो जाता है उस
SR No.032744
Book TitleMarkandeya Puran Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1962
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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