SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समय उसके पास-पड़ोस के लोग, उसके साथ खाने-खेलनेवाले लोग जो कुछ उसके कानों में कहते हैं उससे वह किसी को अपने अनुकूल और किसी को अपने प्रतिकूल समझ उनसे राग, द्वेष कर लेता है / ये राग, द्वेष उसके सन्मार्गोन्मुख मन को बरबस संसार के असन्मार्गों की ओर आकृष्ट करते हैं / उस समय मन यदि जगन्माता महामाया की शरण में जाता है तो वे कृपाकर फल-भोग में फंसे मानव को सचेत कर देती हैं / फिर सचेत मानव अभ्यास और वैराग्य रूप बाहुओं से राग, द्वेष के साथ युद्ध करता है और अन्त में उन्हें पराजित कर मन का साधनामार्ग प्रशस्त कर देता है। महिषासुरवधप्राणी का अस्तित्व देह तक ही सीमित है / देह के जन्म के साथ उसका जन्म तथा देह की मृत्यु के साथ ही उसकी मृत्यु होती है / देह के पहले या बाद उसका किसी प्रकार का कोई अस्तित्व नहीं रहता / विषय सुख ही परम सुख है और प्रभुत्व का अधिकाधिक विस्तार ही उस सुख का उपाय है। किसी भी प्रकार उसका सम्पादन ही परम पुरुषार्थ है / इससे परे न कोई वस्तु है और न इससे अधिक किसी को कुछ करना है। इस प्रकार के विचार ही असुर हैं और इन विचारों की पुष्टि एवं बल-वृद्धि जिससे हो वही इनका अधिपति महिषासुर है / और वह है तामस अहम्भाव / यह अहम्भाव उक्त विचार-रूप अपने असुर सैनिकों द्वारा सद्विचार-रूप सुरों को पराजित कर उनके स्वामी विवेक-रूप इन्द्र को पदच्युत कर सत्त्व-रूप स्वर्ग पर अपना अधिकार स्थापित करता है। ___ महिषासुर का अन्त करने के लिये देवी को अवतीर्ण होना पड़ता है। पदच्युत इन्द्र और पराजित देव उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते / स्वयं भगवती को भी इसे पछाड़ने के लिये महान् समारम्भ करना पड़ता है / जब समस्त देवताओं के तेज एकलक्ष्य हो एकत्रित होते हैं और उनके संगठित रूप का नेतृत्व भगवती के कर कमलों में अर्पित कर देवताओं के सारे साधन उन्हें सौंप दिये जाते हैं, तब वे महिषासुर का वध करने को प्रस्तुत होती हैं। पहले उस अहम्भाव के पोषक दुर्विचार-रूप असुर-सैनिकों का वे वध करती हैं। सेना का संहार देख देवी पर अाक्रमण करने के हेतु विभिन्न रूपों में अहम्भाव खड़ा होता है, किन्तु देवी के समक्ष उसकी कुछ नहीं चलती। अन्त में उनकी चमचमाती तलवार से उसका शिरश्छेद हो जाता है / असुराधिप अहम्भाव के गिरते ही देवताओं में आनन्द की लहर दौड़ जाती है। सत्व-स्वर्ग पर पुनः विवेक-इन्द्र का राज्य प्रतिष्ठित होता है।
SR No.032744
Book TitleMarkandeya Puran Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1962
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy