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________________ ( 28 ) बहुतों को यह कथा बड़ी अद्भुत तथा अनुपपन्न सी लगती है / जगत के अर्णवाकार होने, शेष के ऊपर विष्णु के शयन करने, उनके कान में मैल होने, उससे दो राक्षसों के पैदा होने, उनसे ब्रह्मा के त्रस्त होने तथा उनके साथ विष्णु के चिरकाल तक युद्ध करने की बातें असंगत सी प्रतीत होती हैं / पर वास्तव में इसमें कोई असंगति वा असम्भावना नहीं है / जो अत्यन्त मुग्ध, हैं, जिनकी प्रज्ञा नितान्त निम्नस्तर की है उन्हीं को इस वर्णन में अयुक्तता एवं दुर्घटता का आभास होता है। किन्तु जिन पर जगन्माती का किंचित भी कृपाकटाक्ष पड़ा है / जिन के ज्ञानचक्षु में माता के मङ्गलमय चरण-रेणु की हल्की सी भी अञ्जन-शलाका लगी है / उनकी दृष्टि में यह सारा वर्णन सत्य, सुघट एवं सुसम्भव है / जिस महामाया के अनुभाव से उस अद्वय चिदाकाश में यह नाना रूपमय अद्भुप्त असीम जगत खड़ा हो सका है उसे उक्त वर्णन की साधारण विषय वस्तु खंडाकर सकने में क्या कठिनाई है ? . ___ असाधारण वर्षा तथा समुद्रों के तटभङ्ग से जगत का एक अर्णवाकार हो जाना कोई असम्भव बात नहीं है / अधिकार के अवशेष रहने से शेष, विष्णु एवं ब्रह्मा के व्यवहार की प्रवर्तक-उपाधियों का अवस्थित रह जाना भी कोई असम्भावित घटना नहीं है / विष्णु का शरीर भी शरीर है और वह भी त्रिगुणात्मक ही है, अत: उस शरीर में कान होना तथा कान में मैल होना भी अास्वाभाविक नही है। अनेक जीवों के अयोनिज जन्म जगत में नित्य होते रहते हैं, अतः उस मैल से मधु, कैटभ के अयोनिज शरीर का प्रादुर्भाव भी अशक्य नहीं है / इसी प्रकार उक्त वर्णन की शेष बातों की सम्भाव्यता भी बुद्धि से परे नहीं है / इसलिये स्पष्ट है कि जो लोग, पामर जनों की भांति जगत के वर्तमान रूप को ही देखते हैं, इसके पूर्व और पर अवस्था का चित्र अपनी विचारभित्ति पर खींचने की चेष्टा नहीं करते, उन्हें ही उक्त वर्णन में असंगति का अाभास होता है। __ अस्तु, यह तो हुई. आधिभौतिक दृष्टि की चर्चा / इसके साथ ही उक्त कथा को आध्यात्मिक एवं प्राधिदैविक दृष्टि से भी समझने का यत्न करना चाहिये / उसके अनुसार समस्त कार्य-प्रपञ्च के परम कारण में लय होने का नाम है. जगत् का एकार्णवीभाव / विष्णु शब्द का अर्थ है व्यापक चैतन्य / शेष शब्द का अर्थ है विनश्वर श्रेणी का होते हुये भी एवं महाविनाश की सामग्री का सन्निपात होने पर भी बच जानेवाला पदार्थ, वह है जगत का बीजभूत कर्म तथा ज्ञान-जनित जीव का संस्कार / उस जगबीज संस्कार-रूप शेष-शय्या पर व्यापक चैतन्यरूप विष्णु का निष्क्रिय अर्थात जगत के व्यापार से हीन हो अवस्थित रहने का नाम है विष्णु की निद्रा / व्यापक चैतन्याकाश ही विष्णु-कर्ण है।
SR No.032744
Book TitleMarkandeya Puran Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1962
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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