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________________ ( 27 ) देव; मानव कोई उन्हें अपनी शक्ति से नहीं जान सकता। वह अपनी कृपा, अपनी इच्छा से ही जानी जा सकती हैं / भौमसुख, स्वर्गसुख और मोक्षसुख सब कुछ उनके अनुग्रह से ही सुलभ होता है। इसी कारण मेधा ऋषि ने उनकी महिमा का उपदेश कर सुरथ और समाधि को उनकी श्राराधना के लिये प्रेरित किया था। तामुपैहि महाराज! शरणं परमेश्वरीम् / आराधिता सेव नणां भोगस्वर्गापवर्गदा॥ . कुछ लोगों का यह भाव हो सकता है कि जब देवी का स्वरूप इतना रहस्यमय और दुरूह है तो उन्हें बिना समझे उनकी आराधना कैसे हो सकती है 1 अन्धकार में हाथ फैलाने से क्या लाभ हो सकता है ? पर इस भाव को प्रश्रय देना उचित नहीं है / यह भाव मानव को मार्गच्युत बना उसे अनर्थ के गर्त में गिरानेवाला है / वह परम करुणामयी महामाया जगत की जननी हैं / मनुष्य उनका छोटा-सा शिशु है / शिशु को माता का इतिवृत्त भले न ज्ञात हो पर उसे पाना, उसकी मधुमय अङ्क में बैठना, उसके स्तन्यामृत का पान करना कठिन नहीं है / जैसे लोक की साधारण मां अपने शिशु की पुकार को सुनते ही अधीर हो उसकी ओर दौड़ पड़ती है। उसका संकेत पाते ही अपने बलवान् बाहु से उठा उसे गले लगा लेती है। वैसे ही वह जगन्माता महामाया भी मानव की कातर पुकार सुनते ही, उसका अपनी ओर थोड़ा सा झुकाव होते ह उसे सर्वस्व दान देने को तयार रहती हैं। मधुकैटभवध___ सप्तशती के प्रथम अध्याय के अन्त में यह कथा है कि जगत जब अपनी विविधरूपता का परित्याग कर एक अर्णवाकार-केवल जलमय हो रहा था और श्रीविष्णु उसमें शेष की शय्या पर शयन कर रहे थे, तब उनके कान के मल से मधु, कैटभ नाम के दो राक्षस पैदा हुये / वे विष्णु के नाभिकमल में स्थित ब्रह्मा को मारने को उद्यत हुये / ब्रह्मा ने देखा कि सर्वत्राता विष्णु योगनिद्रा की गोद में निश्चिन्त पड़े हैं और वे स्वयं अपनी शक्ति से उन राक्षसों का प्रतीकार नहीं कर सकते / वे बड़ी चिन्ता में पड़ गये। उन्हें ध्यान आया कि जगत्पिता तो सो रहे हैं अवश्य, पर जगन्माता उस समय भी जागृत हैं, उन्हीं की पुकार करनी चाहिये / यह सोच उन्होंने माता का आवाहन किया / माता ने पुकार सुंनी, जगत्पिता को जगा दिया / जागने पर उन्हें उन प्रबल राक्षसों से सहस्रों वर्ष युद्ध करना पड़ा / अन्त में वे थक गये / मोह ने उन्हें दुर्बल कर दिया / विष्णु के चक्र से उनका शिरश्छेद हुश्रा / ब्रह्मा के प्राण बचे।
SR No.032744
Book TitleMarkandeya Puran Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1962
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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