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________________ दिग्यात्मा इसके प्रथमतः तीन भेद होते हैं-वैश्वानर, तैजस और प्राज्ञ / पाषाण आदि असंज्ञ प्राणी वैश्वानर की श्रेणी में गिने जाते हैं, वृत्त आदि अन्तःसंज्ञ प्राणी तैजसवर्ग में माने जाते हैं। मनुष्य आदि व्यक्तसंज्ञ प्राणी प्राज्ञ माने जाते हैं। प्राज्ञ के मुख्यतया तीन भेद होते हैं-कर्मात्मा, चिदाभास और चिदात्मा। कर्मात्मा कर्म के बिना प्राणी जीवित नहीं रह सकता। किसी भी प्राणी का कर्मशून्य होकर एक क्षण भी रहना असम्भव है, जैसा कि भगवद्गीता में कहा गया है न हि कश्चित् क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् / / शतपथ श्रुति के अनुसार कर्म के अभाव में प्राण अपूर्ण रहते हैं, यथा___अकृत्स्ना उ वै प्राणा ऋते कर्मणः, तस्मात्कर्माग्निमसृजत / कर्म स्वरूपतः आशु विनाशी होते हैं किन्तु वे अपने संहकार छोड़ जाते हैं / इन संस्कारों को पुण्य और पाप अथवा धर्म और अधर्म शब्दों से व्यवहृत किया जाता है / ये संस्कार जिसमें समवेत होते हैं उसे कर्मात्मा कहा जाता है, उसी की प्रसिद्ध संज्ञा जीव है और वह ईश्वर के अधीन रहता है। चिदाभास ईश्वरचैतन्य का जो भाग मनुष्य के शरीर में प्रविष्ट हो हृदय स्थित विज्ञानात्मा से सम्पृक्त होता हुआ शरीर, इन्द्रिय, प्राण आदि के धर्मों से संसष्ट होता है उसे चिदाभास कहा जाता है, वह प्रति शरीर में भिन्न-भिन्न होता है। चिदात्मा ईश्वर का वह भाग जो समस्त विश्व में भी व्याप्त रहता है और साथ ही शरीर में भी व्याप्त रहता है किन्तु व्याप्तिस्थान के धर्मों से सम्पृक्त नहीं होता वह चिदात्मा कहा जाता है। वह ईश्वर, परपुरुष आदि शब्दों से भी व्यवहृत होता है। चिदात्मा के तीन भेद होते हैं-विभूतिलक्षण, श्रीलक्षण और ऊर्क लक्षण / इनका निर्देश गीता में इस प्रकार किया गया है यद्यद् विभूतिमत्सत्वं श्रीमदूर्जितमेव वा। तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोऽशसम्भवम् // (अ० 10 श्लो.४१)
SR No.032744
Book TitleMarkandeya Puran Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1962
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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