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________________ 7. कृतज्ञतापतिः- अरिहंत परमात्मा कृतज्ञता के स्वामी होते हैं। स्वामीत्त्व उसे कहते हैं जो सदा स्थायी हो। अपने लिए थोडा सा भी उपकार करनेवालों के प्रति प्रत्युपकार करना उनका सहजगुण होता हैं। कभी कभी तो हम किसी का उपकार हैं ऐसा भी नहीं समझते हैं। ऐसी घटना के समय में ये तो मेरे कर्मक्षय के सहायक हैं। ऐसा मानते हैं। ८. अनुपहतचित्त :- अर्थात् अभग्न मन वाले। जिनका चित्त का उपघात नहीं होता। चाहे कितने भी भयंकर उपद्रव क्यों न हो। परम आत्माओं के अध्यवसाय उच्च होते हैं। अनार्य देश में विचरण करते समय भगवान महावीर स्वामी जब “अंतसोजाई" अर्थात् अंतर्ध्यान में लीन थे तब आस पास के लोगों नें “हताहंता बहवे कंदिसु" ऐसा कहकर शोर मचाया था, प्रहार किया था तब भी प्रभु ने अपने अध्यवसायों को कमजोर नहीं कियेथे। आदरभाव में सदा सक्रिय रहनेवाले परमात्मा देव गुरु और धर्म के त्रितत्त्व को धर्म मार्ग का प्रथम अनुष्ठान घोषित करते हैं। मरिचि के भव में त्रिदंडी तापस बने हुये महावीर की आत्मा ने भगवान ऋषभ देव के समवसरण में आनेवाले साधकोंको स्वयं की कमजोरी सूचित कर परमात्मा के सन्मान का, बहुमान का और आदरभाव का महत्त्व समझाया था। 9. गम्भीराशयः- अरिहंत परमात्मा के अभिप्राय गंभीर होते हैं। साधना काल के समय आत्मविकास में छोटासा निमित्त मिलनेपर इनमें विशिष्ट गुण प्रारंभ हो जाते हैं। भगवान मल्लिनाथ का चरित्र आपने सुना हैं ना ? ६ राजा उनके रुप के दिवाने थे। सभी उनसे शादि करना चाहते थे। ऐसा उचित नहीं था। मल्लिनाथ भगवान ने क्या किया? उन्होंने अशोक वाटिका में अनेक स्तंभोंवाला मोहन घर बनवाया। उसके बीच में एक गुप्त गृह बनवाया उसके चारों ओर ६ जालियाँ लगवाई। बीच में एक विशाल चबूतरा बनवाकर उसके उपर अपने समस्वरुप मुर्ति बनवाकर रख दी। यह मुर्ति बीच में से खोखली थी। ऊपर से कुछ डालने के लिए ढक्कन रखा था। प्रतिदिन स्वयंजोखाती थी वो उसमें डलवाती थी। कुछ दिन के बाद छहो मित्रों को आंमत्रित कर मोहन घर में ठहराया गया। अंदर घुसते ही जाली से गुप्त गृह में मल्लिकुमारी की प्रतिमा को मल्लिकुमारी ही समझा सभी एक टक देखने लगे। इतने में मल्लिकुमारी ने पीछे से मुर्ति का ढक्कन खोल दिया। ढक्कन खुलते ही चारों ओर दुर्गंध फैल गयी। सभी परेशान हो गए। घबरा गए। मल्लिकुमारी ने सबको संबोधित करते हुए कहा, "जिस मुर्ति में भोजन का एक कौर डाला गया तो इतनी दुर्गंध होती हैं। तो मेरे जिस शरीर पर तुम आसक्त हो रहे हो वह कितना अशुचिमय हैं। जिन पुद्गलों से यह शरीर बना है वह पुद्गल भी कितने अशुचिमय होते हैं।" छहों राजा मल्लिकुमारी के इस गंभीराशय से जाग्रत हो गए। प्रतिबुद्ध हो गए। अतीत लौट आया। जातिस्मरण ज्ञान हुआ। छहो मार्गानुगामी होकर मोक्षगामी हो गए। विभाव में सोना होगा, स्वभाव में जगना होगा। पुरुषोत्तम अर्थात् “अप्पाणमणुसासई" - स्वयं का स्वयंपर नियंत्रण पुरुषोत्तमता हैं। तीनों लोकोंकी उत्तमता प्रगट हो गई। चैतन्य की शास्वतता पुरबहार खिल गई।
SR No.032717
Book TitleNamotthunam Ek Divya Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherChoradiya Charitable Trust
Publication Year2016
Total Pages256
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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