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________________ कार्यरूपधर्म सम्यक दर्शन, सम्यकज्ञान और सम्यक चारित्र को कहते है । आत्मपरिणाम तत्त्वश्रद्धान, तत्त्वदृष्टि और तत्त्वपरिणति रुप है। विश्व में जो हेय, ज्ञेय और उपादेय रुप तत्त्व है उनके प्रति उदासीन, ज्ञानशील और आचरणयुक्त तत्त्व है उनको परिणतीमय बनाना अधिक दृढता से निर्मलता से उसका पालन करने से मोक्षरुप कार्य बनता है। प्रवृत्ति रुप धर्म दानशील तप और भावनामय धर्म को प्रवृत्तिमय बनाता है। अभयदान, धर्मोपग्रहदान आदिरुप दानधर्म । श्रावक के बारह व्रत, दस प्रकार के यति धर्म, समकित वे 67 बोल आदिरुप प्रवृत्ति, तप के बारह प्रकार। मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थादि रुप भावनाचतुष्टय और अनित्यादि बारह भावनारुप प्रवृत्ति धर्म होता है। आलंबन रूप धर्म के दो प्रकार है। साश्रवधर्म अर्थात् आरंभ-समारंभ वाला धर्म। यात्रागमन, संघभक्ति साधर्मिक वात्सल्य, धर्मस्थान का निर्माण, ज्ञानभंडार आदि सब साश्रवधर्म है। साश्रवधर्म के पालन से गहस्थधर्म लेश्या वर्धमान होती है। निराश्रवधर्म से यह धर्म अल्प अंश में परिणति करता है। संसार के सर्व संबंधों से मुक्त सर्वविरतिरुप सामयिक धर्म निराश्रवधर्म है। ज्ञानाचार, दर्शनाचार, तपाचार और वीर्याचार पंचाचाररुपधर्म निराश्रवधर्म है। 6 चौथा स्वरुप धर्म । धर्म का स्वरुप योगरुप है। योग अर्थात् जो मोक्ष के साथ जोड दे। योग के कई प्रकार है, जो उपयोगधर्म में फलित होता है वह मोक्ष का स्वरुप कहलाता है। समग्र प्रयत्न पराक्रम । परमात्मा का पराक्रम जन्म से ही प्रसिद्ध होता है। जैसे भगवान महावीर की आत्मा ने माता के गर्भ में हलन चलन बंद करके माता को पीडा नहीं पहुंचाने का पराक्रम किया था। जन्म लेते ही इन्द्र की आशंका का उन्मूलन करने के लिए पांव के अंगूठे से मेरुपर्वत हिला दिया था। यह तो व्यक्यिगत है परंतु सभी तीर्थंकर प्रभु उत्कृष्ट वीर्यवाले होते हैं। परम सात्विक वीर्यवाले होने के कारण वे महाप्रतिमा के धारण करनेवाले निश्चल, निष्कंप ध्यानवाले होते हैं । केवली समुद्घात शैलेशीकरण आदि महापराक्रमवाले और परमयोग की प्रक्रियावाले होते हैं। अहो आश्चर्यम् ! भगवंताणं पद के स्वाध्याय का अंत हो रहा है। प्रत्येक अंत एक आदि का सूचन होता है। परंतु पहले आदि और बाद में अंत होता है। यहाँ साधना क्रम में पहले चर्चा अंत की है फिर आदि की। भव, भय, भ्रम का अंत हो जाने पर निर्भय, निभ्रम, निर्मल पवित्रता में परमतत्त्व हममें किसी आदि की आदि करते हैं। कल हम आइगराणं पद के स्वाध्याय की आदि करेंगे। स्वाध्याय हमारे स्व में वह करेगा जो पूर्व में कभी भी नहीं हो पाया है । वह आदि जो ऐसे ही किसी अंत के बाद ही संभव है। आप सब साधक आज इस पद का खूब स्वाध्याय करना और अंत करने वाली अंतरायों का अंत करके आना। एक अपूर्व आदि के लिए तैयार होकर आना। आइगराणं पद के स्वाध्याय में आपको हार्दिक आमंत्रण है । ऑंखें बंद कर शांतिपूर्वक नमोत्थुणं भगवंताणं पद का स्मरण कीजिए । नमोत्थुणं भगवंताण नमोत्थुणं भगवंताण नमोत्थुणं भगवंताण 36
SR No.032717
Book TitleNamotthunam Ek Divya Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherChoradiya Charitable Trust
Publication Year2016
Total Pages256
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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