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________________ द्रव्य को कोई बन्धन है, क्षेत्र की कोई सीमा है, काल को कोई मर्यादा है लेकिन भाव के लिए कोई बन्धन नहीं, कोई मर्यादा नहीं, किसी प्रकार की सीमा नहीं वह सीमातीत, मर्यादातीत बन्धन से रहित है । परिणामिक भाव के भी दो प्रकार है। एक द्रव्य पारिणामिक भाव और एक भाव पारिणामिक भाव । द्रव्य पारिणामिक भाव का मतलब होता है कि हम अपने को सब कुछ उसी पारिणमित रुप में अनुभव करते है । जैसे चिंटी को भी अपनी चिंटी की पर्याय का पारिणामिक भाव है । वह स्वयं को मैं चीटी ही हूँ ऐसा मानती है। मुझे ना नहीं है जीना है ऐसा जानती है। भगवान महावीर की आत्मा ने जब सिंह का जन्म धारण किया था । उस समय दो मुनियों ने उनको प्रतिबोधित किया था। जब सिंह शिकार की खोज में था तब दो मुनियों ने जाकर उन्हे प्रतिबोधित किया, सिंह तुम ? स्वयं को पहचानो । तुम्हारी अपनी आत्मा की अलौकिक पर्याय को याद करो। तुम्हारी बीती पापमयी पर्याय को याद करो और तुम्हारी वर्तमान पर्याय का पर्यावलोचन करो। आवलोकन करो। तुमारे भविष्य का तुममें दर्शन करो। इससे तुम स्वयं को जान पाओगे कि कि तुम कहा थे ? कहा हो और क्या होने वाले हो ? सिंह की आत्म शिघ्र ही जाग्रत हो गई? महापुरुषों की आत्मा चाहे जिस किसी भी तिर्यंच पर्याय में हो, उन्हें जागृत करने के लिए क्षणवार लगती है। किसी भी तिर्यंच पर्याय में हो परम सिद्ध पुरुष उन्हें परम विशुद्ध अवस्था में परिणमित करते है। अब हम स्वयं के दोनो परिणमन को देखें जैसे मैं किसी गुजराती परिवार की बेटी हूँ । वहाँ से दीक्षित मै श्रमण संघ की साध्वी बनी । दिव्यप्रभा के नाम से पहचानी जाती हूँ। ये सब मेरे दिव्यप्रभा नाम से रीलेटेड पारिणामिक भाव है। उससे जरासी हटती हूं क्या मैं वास्तव में दिव्यप्रभा ही हूँ । तब मुझे मेरी भावी पर्याय का बोध होता है। मैं तो अरिहंत भक्ता हूँ । सिद्ध की स्थिति को पाने वाली हूँ मेरे पारिणामिक भाव बदल गए और शुद्ध पारिणमिक भाव प्रगट हो गये। मै शुद्ध हूँ । बुद्ध हूँ । निरंजन हूँ। निराकार हूँ। दैहिक पर्याय से मुक्त हूँ। जैसे हम दीक्षा के समय परिवार की मर्यादा से मुक्त हो जाते है। जिस तरह वस्त्र बदल करें वस्त्र पर्याय से मुक्त हो जाते है, उसी तरह से मैं देह पर्याय से भी मुक्त हूँ। मैं एक शुद्ध निरंजन आत्मा हूँ। एक शाश्वत चेतना हूँ । न स्त्री न पुरुष न गुजराती न मारवाडी ना पंजाबी हूं परंतु मेरी पर्याय पूर्ण शुद्ध सिद्ध पर्याय है। ये मेरा शुद्ध पारिणामिक भाव है। चौथी व्याख्या है समग्र श्री । श्री अर्थात् परमज्ञान, परमतेज, परमसुख, परमसंपत्ति। यह सबकुछ परमात्मा को सिद्ध होता है इसीकारण भगवान की व्याख्या में "श्री" को प्रस्तुत किया गया है। ऐश्वर्य, वैभव, रुप, यश सब जिसमें एकसाथ प्रगट होते है उसे श्री कहते हैं। मरुदेवी माता ने भगवान ऋषभदेव की याद में रोरोकर ऑंखे खो दी थी। जब भरतचक्रवर्ती अपनी दादी को भगवान के दर्शन को ले गये तब परमात्मा की श्री ने ही उनके मोहनीय कर्म के आवरण को हटा कर उनमें कैवल्य प्रगट करवाया था । इसी श्री ने गौतम स्वामी के पंद्रह सौ तापसों को केवल ज्ञान प्रगट करने में सहायता की थी। पांचवा तत्त्व है समग्र धर्म । समग्र धर्म चार स्वरुप में बांटा गया है। १. कार्यरुप (साध्य) धर्म ३. आलंबन रूप (साधन) धर्म २. प्रवृत्ति (साधना) धर्म ४. कारणरूप (स्वरूप) धर्म
SR No.032717
Book TitleNamotthunam Ek Divya Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherChoradiya Charitable Trust
Publication Year2016
Total Pages256
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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