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________________ और अकेला यह कैसे? चक्रवर्ती और पदयात्री यह कैसे ? चक्रवर्ती और नंगे पैर यह कैसे? यह सब कैसे संभव हो पाता है? गहरे चिंतन के साथ वह सोचता रहा। यदि सामुद्रिक शास्त्र सच्चा हैं तो यह चिन्ह चक्रवर्ती के होने चाहिए। यदि वह चक्रवर्ती नहीं है तो मेरा शास्त्र झूठा है। मैं इस झूठे के साथ समझौता नहीं कर सकता हूँ। इस ज्ञान के द्वारा मैं अपना जीवन यापन नहीं कर सकता हूँ। ऐसा सोचकर वह अपने शास्त्र पानी में डालने लगा। अचानक किसी ने शास्त्रों के साथ उठाया हुआ उसका हाथ पकड लिया। ठहर जा !! तेरा शास्त्रीयज्ञान अधूरा और अनुभव विहीन हैं। चल मेरे साथ भीतर थूणाक सन्निवेश में। वहाँ तूझे चक्रवर्ती का मिलन करा देता हूँ। पुष्य मन ही मन प्रसन्न हो गया। चक्रवर्ती और अकेला किसी कारण से आ भी गया तो मैं उसको साथ दूंगा। उसकी सेवा करु ताकि भविष्य में जब इसे चक्रवर्ती पद मिले तो मेरे भी भाग्य खुल जाए। ऐसा सोचकर वह थूणाक सन्निवेश की ओर चलने लगा। थूणाक के परिसर में पहुंचते ही उसने देखा एक भिक्षु राजमहल के अलावा उद्यान में खडा हैं। चक्रवर्ती के स्थानपर एक नग्न भिक्षु को देखकर उसे आश्चर्य हुआ। शरीर के चिन्हों से उसे दृढ विश्वास हो गया कि ये लक्षण सूचित कर रहे हैं कि ये चक्रवर्ती सम्राट है। किंतु समझ नहीं पा रहा हूँ कि चक्रवर्ती श्रमण कैसे? चक्रवर्ती और एकाकी! नग्न शरीर ! मुंडित सिर ! पुष्य बडी उलझन में फंस गया। उसी समय भगवान महावीर के दर्शनार्थ आया हुआ इन्द्रराज ने पुष्य से कहा कि, “भाग्य को मत कोस, तेरे शास्त्र सत्य हैं। तेरा सामुद्रिक शास्त्र भी सत्य हैं। पुष्य ! तुमने भगवान को पहचाना नहीं। ये महावीर है। चक्रवर्तियों के चक्रवर्ती हैं। तुम्हारा चक्रवर्ती तो सिर्फ पृथ्वीतक सीमित है। ये तो तीन लोक के चक्रवर्ती है, धर्म चक्रवर्ती है। इनका दिव्य भव्य मुख मंडल तो देख देहांकित १००८ शुभ लक्षणों को भी देख। खोल तेरे ज्ञान चक्षु।” यह सुनकर पुष्य हर्षित हुआ और अपनी अंतश्चेतना से महावीर को देखने लगा। ___ “इन्द्रराज ! सचमुच, मैं भगवान को पहचान नहीं पाया। चक्रवर्ती केवल छह खंडपर शासन करता हैं। धर्मचक्रवर्ती समस्त मानव जाति का रक्षण करते हैं। चक्रवर्ती सिर्फ षट्खंड पूजित होता है। धर्मचक्रवर्ती त्रैलोक्य पूजित होते है। इस आर्यावर्त में इनके जैसा धर्म चक्रवर्ती कोई नहीं है। आज प्रभु के दर्शन से मैं धन्य हो गया। इनके महाकठिन तप-त्याग, ध्यान साधना की चर्चा सुनी है। आज प्रत्यक्ष दर्शन हुए।” उसने श्रद्धा से नमन किया और अपने भाग्य को संवारता हुआ पुष्य गंगा के दूसरे तट की ओर चला गया। धर्मचक्र चार गतियों का अंत करने के लिए एक ऐसा सूत्र देता हैं जिसमें जीव स्वयं के बारे में सोचना सुरु करता है। वह सूत्र हैं - "केऽहं आसि के वा इओ चुओ इह पेच्चा भविस्सामि ।" धर्मचक्र के इस सूत्र में चार प्रश्न समाए हुए हैं। मैं कौन हूँ? कहाँ से आया हूँ? कहाँ जानेवाला हूँ? और मेरा मोक्ष कब होगा? ये चार प्रश्न चारों दिशाओं में झंकृत होने लगते हैं। अपने आत्मस्वरुप के लिए जीव जब आगमन के बारे में सोचता है तो वह भी दिशाओं का क्रम इसतरह सोचता है जैसा कि भगवान महावीर ने अपनी पहली सभा में अपने धर्मचक्र का पहला संदेश यही दिया था कि जीव यह नहीं जानता हैं कि वह पूर्व दिशा से आया, दक्षिण दिशा से आया, पश्चिम दिशा से आया, या उत्तर दिशा से आया? संसार के परिभ्रमण का यह चक्र हैं। चैतन्य आत्मा दिशाओं के बंधन से मुक्त 195
SR No.032717
Book TitleNamotthunam Ek Divya Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherChoradiya Charitable Trust
Publication Year2016
Total Pages256
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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