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________________ और फाल्गुण पूणिमा से अषाढ पूर्णिमा तक तीसरा चातुर्मास। चार का अंत अर्थात् जीव की पुनः पुनः प्राप्त होनेवाली नारकी, तिर्यंच, मनुष्य और देवता। इन चारों गति और अवस्थाओं का हमेशा के लिए अंत कर देना। धर्मचक्रवर्ती में ये सामर्थ्य हैं और इस सामर्थ्य का कारण है उनका धर्मचक्र। इस अंत में दान, शील, तप आदि धर्मचक्र के द्वारा अंत सहायभूत होते हैं। दान का धर्म परिग्रह संज्ञा का, शीलधर्म इन्द्रियोंकी विषयसंज्ञा का, तप आहारसंज्ञा का और भावनाधर्म कषाय आदि प्रमादसंज्ञा का अंत करने में सहायभूत होते हैं। धर्म परमात्मा का हृदय हैं। धर्म का प्रारंभ दुष्कृत की गर्दा और सुकृत की अनुमोदना से होता है। सुकृत की अनुमोदना में तीनों लोक के धर्म का अनुमोदन है। सुकृत की अनुमोदना से कही भी होनेवाला सुकृत हमारा सुकृत बन जाता हैं। नमो अरिहंताणं मंत्र से सर्वकाल के सर्वक्षेत्रों के तीर्थंकरों के सुकृत की अनुमोदना होती हैं। धर्म स्वयं के करने से होता हैं, करवाने से भी होता हैं और धर्मसुकृत की अनुमोदना से अनेक जन्म के निरर्थक पाप समाप्त होते हैं। अनादिकाल से परिभ्रमण का कारण और क्रम बताता है वह धर्म है। देह में रहकर देहातीत होने की प्रक्रिया प्रदान करे वह धर्म है। भगवान भक्त को कहे तु शुद्ध आत्मा हैं, सिद्ध आत्मा हैं, तू मेरे जैसे ही सहज स्वरुपवाला है। पुरुषार्थ और पराक्रम कर तेरे भीतर छीपा हुआ परमात्मतत्त्व प्रगट हो जाएगा। एक दिन राजा चक्रायुध ने अपनी पुत्री राजकुमारी प्रभंजना के लिए सुयोग्य राजकुमार हेतु स्वयंवर का कार्यक्रम रखा। स्वयंवर में प्रवेश करने के पूर्व प्रभंजना साध्वी सुव्रता के श्रीमुख से मांगलिक श्रमण करने हेतु उपाश्रय में गयी। साध्वी श्री ने मांगलिक के साथ नमोत्थुणं धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टीणं का मंत्र दान भी किया। मंत्र का स्मरण और चिंतन करते हुए प्रभंजना स्वयंवर और धम्मवर पर चिंतन करते हुए चारों गतियों का अंत करनेवाले धर्मचक्रवर्ती का स्मरण करने लगी। स्वयंवर का प्रारंभ हुआ। चारों ओर राजकुमारों को देखती हुई प्रभंजना निरंतर संसार के बारे में सोचने लगी। यह स्वयंवर चर्तुगति के भवरुप है। परमात्मा मेरे भावरुप उपास्य है। चर्तुगित का अंत करनेवाले धर्मचक्रवर्ती की देशना की स्पर्शना मुझे निरंतर संसार विराम का और भव के पूर्णविराम का संदेश देती है। ऐसा सोचते सोचते राजकुमारी प्रभंजना को स्वयंवर मंडप में ही केवलज्ञान की प्राप्ती हो गयी। स्वयंवर का कार्यक्रम धर्मदेशना में रुपांतरीत हो गया। इस पद का अद्भुत प्रभाव है। धर्म यह चक्रवर्ती के चक्र की तरह एक चक्र है। चक्रवर्ती का चक्र जिसतरह शत्रुओं की शत्रुता का अंत करता है उसी तरह यह धर्मरुपी चक्र आत्मा के अति भयंकर भावशत्रु अर्थात् आंतरिक शत्रुओं को समाप्त करता है। चक्र के अनेक प्रकार हैं। चक्र वह है जो निरंतर घूमता रहता है। औचित्य से जो चक्र के साथ वर्तते हैं उन्हें चक्रवर्ती कहते हैं। तथाभव्यत्त्व के बलपर वर बोधि से लेकर मोक्ष प्राप्ति तक वे वैसे ही वर्तते हैं। वे निरंतर धर्मचक्र से संपन्न होते हैं। आप जानते हो न भगवान महावीर साधना के दूसरे वर्ष में थूणाक सन्निवेश में ध्यान कर रहे थे। उस समय गंगा तटपर उस समय का प्रसिद्ध सामुद्रिक पुष्य पहुंचा था। घूमते घूमते तट पर उसने अंकित चरण चिन्ह देखे और आश्चर्य विभोर हो गया। उसका सामुद्रिक ज्ञान उसे बार-बार प्रश्न कर रहा था कि ये चिन्ह किसी साधारण राजा के नहीं हैं परंतु चक्रवर्ती के होने चाहिए। चक्रवर्ती 194
SR No.032717
Book TitleNamotthunam Ek Divya Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherChoradiya Charitable Trust
Publication Year2016
Total Pages256
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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