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________________ एकबार परमात्मा के चरणों में समर्पण करके तो देखो हमारे अपूर्ण होते हुए भी पूर्ण परमात्मा हमें पूर्ण प्रेम नजर से देख रहे हैं। किसतरह हमें सिद्धत्त्व प्राप्त हो उसकी पूर्ण जिम्मेवारी अपनेपर लेते हैं। महाभारत के युद्ध की एक घटना आपको याद होगी। युद्ध विराम के बाद श्रीकृष्ण दोनों पक्षों की छावणी में जाते थे। एकबार उन्होंने शाम को कौरव पक्ष में देखा की भिष्म पितामह ने यह प्रतिज्ञा ली कि कल के युद्ध में या तो मैं नहीं रहूँगा या तो अर्जुन नहीं रहेगा। शिघ्र ही श्री कृष्ण अर्जुन के पास पहुंचे जो आराम से सो रहे थे। उन्हें जाते ही जाग अर्जुन जागर अर्जुन को उठाया। घबराया हुआ अर्जुन उठा और बोला प्रभु क्या हुआ? सब घटना बताते हुए श्री कृष्ण ने कहा शत्रु पक्ष में सब जग रहे हैं। कल के युद्ध की योजनाए बन रही हैं और तुम निश्चिंत होकर सो रहे हो। तब अर्जुन ने हा प्रभु! आप जग रहे हो न । मुझे जगा भी रहे हो । भक्त सोता हैं तो चलता हैं क्योंकि भगवान सदा जगते रहते हैं। भक्त की गाडी चलाते रहते हैं। एक बार भगवान को अपनी इस भव भवांतरों की जीवन यात्रा के सारथि के रुप में स्वीकारलो। यह स्वीकारना ही समकित हैं। सिद्धा सिद्धि मम दिसंतु तक वे आपका साथ देंगे । नमोत्थुणं यह इस गाडी का रिर्झवेशन है। नमस्कृत्य को नमस्कार करना, नमोत्थुणं की स्तुति करने से सारथि के साथ के संबंध बनते हैं। नमस्कृत्य को नमस्कार करना समकित हैं और नहीं करना मिथ्यात्त्व हैं। इसतरह जो नमस्कृत्य नहीं हैं उनको नमस्कार करना मिथ्या हैं। इस मिथ्या का परिणाम वनस्पति में परिभ्रमण हैं। वनस्पतिकाय का मस्तक नीचे और पाँव उँचे होते हैं। उनका स्पायनल कोड उलटा होता है। ज्ञानी के साथ या परमतत्त्व के साथ वक्रता से नहीं बरतना चाहिए। इससे तिर्यंच गति में गमन होता हैं। आप तिर्यंचों को देखो उनका स्पायनल टेढा होता हैं। सरलता और समर्पण का परिणाम मनुष्य जन्म है। मनुष्य का माथा उपर और पाँव नीचे होता है। उसका स्पायनल कोड एकदम सीधा होता है। मनुष्य स्वयं टेढा मेढा बैठकर, खडे रहकर या चलकर अपने स्पायनल को टेढा करता है। उँची सोच उँचे विचार परम के साथ का अनुसंधान यह सब सीधेस्पायनल क परिणाम है । इन्हीं सब कारणों से सभी गतियों में मनुष्य गति श्रेष्ठ हैं । हम अपूर्ण हैं फिर भी हमें पूर्णत: देखनेवाले भगवान पूर्ण हैं। ऐसा जानकर हम प्रसन्न है । अन्य हमें जिस दृष्टि से देखते है हम वैसे ही होते हैं। हम जिस दृष्टि से दूसरों को देखते हैं वह वैसा बनता है। इसिलिए गुणानुरागी बनना चाहिए। अरिहंत परमात्मा हमें पूर्ण दृष्टि से देखते हैं। अन्य सर्व हमें अपूर्ण देखते हैं। जो अपूर्ण है वे हमारे कर्म बंधन के कारणरूप है। संसार बढाने में और कर्मवृद्धि में निरंतर सहाय करते है । सारहिणं शब्द के दो अर्थ होते है । पहला अर्थ होता हैं सारथि अर्थात् चलानेवाला। दूसरा अर्थ होता है स्वार्थी । स्वार्थ शब्द के दो अर्थ हैं - इसमे दो शब्द निहित है स्व + अर्थ । अर्थ शब्द के दो अर्थ होते है । अर्थ अर्थात् संपत्ति, धन, वैभव । दूसरा अर्थ के लिए । स्व के लिए स्वार्थ और पर के लिए परमार्थ । स्वयं के लिए और दूसरों के लिए। परमात्मा पर के लिए स्व की चेतना का विस्तार करते हैं। इसलिए परमात्मा का स्वार्थ परमार्थ में परिणमित हो जाता है । स्व + अर्थ = स्वार्थ में जब व्यक्ति स्वयं के परमार्थ के लिए प्रयास करता है तब विकास की यात्रा का प्रारंभ होता हैं। इसे कर्मक्षय की यात्रा कहते है। इससे अतिरिक्त स्व + अर्थ = स्वार्थ अर्थात् दूसरों का नुकसान करके स्वयं का लाभ करना। धन 191
SR No.032717
Book TitleNamotthunam Ek Divya Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherChoradiya Charitable Trust
Publication Year2016
Total Pages256
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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