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________________ गई। जरा सा चखते ही चींटी मरने लगी। पश्चाताप से मुनि की आँखों में आँसु आ गए। उन्होंने सोचा निर्दोष जगह मेरे स्वयं का पेट हैं उसी में परिष्ठापना करनी चाहिए। इससे अधिक सुरक्षित जगह कोई भी नहीं हैं। वहीं पर खडे रहकर गुरुजी को नमस्कार कर व्यंजन आरोगने की आज्ञा लेते हैं - भंते! आपने मुझे दो आज्ञा दी थी। एक तो सब्जी न आरोगने की और दूसरी निर्दोष जगह देखकर पदार्थ की परिष्ठापना करने की प्रभु ! निर्दोष जगह नहीं मिल पाने के कारण मैं आपकी उस आज्ञा का पालन करने में समर्थ नहीं हूँ । आपकी पदार्थ नहीं वापरने की आज्ञा का भंग करने की क्षमा मांगता हूँ। अन्य जीवों की रक्षा करते हुए स्वयं को अर्पित करता हूँ और अनशन करने की आज्ञा माँगता हूँ। फिर उन्होंने पदार्थ को वापरा और उंगली से पात्र को निर्लेप कर अनशन लिया। स्वयं मरकर भी अन्य जीवों का रक्षण करना धर्म शासन हैं। स्वाध्याय में बैठे हुए हेमचंद्राचार्य के हाथ में एक चींटे ने काट लिया। काट के चिपक गया। कोशिश करनेपर भी वह नहीं हट सका। उसकी रक्षा करने हेतु वे किसी गृहस्थ के यहाँ जाकर एक चाकू माँगते हैं। श्रावक ने एक चाकू दे तो दिया लेकिन शंका ने उनके मनपर हावी हो गई कि महाराज श्री चाकू का क्या करेंगे? यह तो सावद्य व्यापार का साधन हैं। साधु को तो निर्वद्य साधना करते हैं । उसमें सहायता के साधन भी निर्दोष होते हैं। ऐसा सब सोचते हुए श्रावक मुनिश्री के पीछे पीछे गए। मुनिश्री चाकु को झोली में रखकर निर्दोष स्थान में जाते हैं । झोली नीचे रखकर चाकू निकालकर चमडी सहित हाथ का चींटेवाला विभाग काटकर वहीं रख दिया। चाकू मिट्टि से साफकर पुन: गृहस्थ के घर की ओर लौटने के लिए पाँव उठाया सामने ही उस उपासक को खड़ा हुआ देखा जिसके यहाँ से वे चाकू लाए थे। श्रावक आचार्य श्री के चरणों में गिर पडा । चरणों में मस्तक रखकर रोने लगा। मुझे क्षमा करो मुनि ! आपके प्रति शंका करनेवाले अपराधी को क्षमा करो गुरुदेव । प्रभु! मुझे मन में अनेक शंका शंका हुई थी। आप महान हैं मुझे क्षमा करें। मकोडे की रक्षाकर उसके प्रति मैत्री और वात्सल्य दर्शानेवाले आचार्य श्री ने क्षमा करते हुए श्रावक को धन्यवाद भी दिया। हमें गौरव हैं इस बात का शासन में आप जैसे श्रावक जाग्रत हैं। शंका कुशंका करनेवाले श्रावक तो वर्तमान काल में बहुत हैं । परंतु उनके चारित्र्य के प्रति प्रेम करके पालन करने में सहयोग देनेवाले श्रावक कितने हैं? साधु-साध्वियों ने ऐसा करना चाहिए वैसा नहीं करना चाहिए आदि पंचायती तो बहुत लोग करते हैं परंतु नियम पालन में प्रेम से सहयोग देकर सेवा करनेवाले लोग कितने हैं। हेमचंद्राचार्य और प्रस्तुत श्रावक इसी पंचम आरे के थे। परंतु उन्होंने सत्त्वप्रगट कर पराक्रम से शासन की रक्षा और धर्म की सुरक्षा करते थे। इसी कारण आचार्य को तीर्थंकर की उपमा दी जाती हैं। जब तीर्थंकर नही होते हैं तब आचार्य तीर्थंकर स्वरुप माने जाते हैं अन्य जीवों की रक्षा के लिए वैसी जीवदया का पालन करोगे तो परमात्मा को भी हमारी दया आएगी। कोई साधु तो धर्म रक्षा के लिए प्राण कुरबान कर सकता हैं । आप भी सोचते होंगे यह तो धर्म हैं आपक परंतु जिनशासन में अन्य जीवों की रक्षा के लिए स्वयं की उपेक्षा करनेवाले श्रावक भी जिनशासन में हो गए हैं। सामायिक में स्थित कुमारपाल महाराज के पाँव में एकबार मकोडा चिपक गया। अनेक प्रयत्न करनेपर भी जब वह 162
SR No.032717
Book TitleNamotthunam Ek Divya Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherChoradiya Charitable Trust
Publication Year2016
Total Pages256
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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