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________________ राशि में प्रवेश दिलाया। उनका आभार माने ऐसा कोई बोध हमें नहीं था। सामायिक, प्रतिक्रमण, प्रत्याखान, तप, जप कुछ भी नहीं था वहाँ। सोचा नहीं कभी आपने? फिर विकास कैसे हुआ? अरिहंत परमात्मा ने सर्व जीवों को शासन रसिक बनाने की भावना की और परिणाम हममें प्रगट हुआ। यह था हमारा परमात्मा के साथ का प्रथम करुणामय संबंध। विकास यात्रा में आगे बढे। शासन में स्थान पाया तब परमात्मा ने कहा अब मेरा तुम्हारे साथ करुणामय संबंध नहीं हैं। अब मेरा तुम्हारे साथ आज्ञामय संबंध प्रारंभ हो रहा हैं। आवश्यक में प्रवेशकर पहला आवश्यक हैं सामायिक व्रत। यह तेरे दो सम्यक नेत्र। इससे सभी जीवों के उपर करुणा कर। सर्वसावद्य का त्याग कर। निर्वद्य हो जा। चतुर्विंशतिस्तव का स्मरणकर, वंदनकर, पूर्व परिभ्रमण में किए गए पापकर्म से वापस लौटने का प्रतिक्रमण कर। काया में रहकर काया का उत्सर्ग रुप कायोत्सर्ग कर और आलोचना कर।आलोचना अर्थात् आत्मा के लोचन से, भीतर की आँखों से स्वयं को देखना और अब पुनश्च पाप नहीं करने की पवृत्ति का प्रत्याख्यान कर। आवश्यक की इन आँखों से देखनेपर तुझे विश्व के समस्त जीवों में तेरे जैसे ही जीवत्त्व के दर्शन होगे और जीवत्त्व में शिवत्त्व की अनुभूति होंगी। परमात्मा कहते हैं वत्स ! जैसा मैं हूँ वैसा ही तू है। तू स्वयं को देख। स्व का स्वको नमन नमस्कार है। स्वका स्व में देखना दर्शन हैं। आज हम चक्खुदयाणं से कहेंगे कि हम आँख बंद कर आपको आमंत्रित करते हैं। आँखे खोलकर उन्हें पवित्र करने का काम आपका रहेगा। आपको ही चक्षु देने हैं, चक्षु खोलने हैं और आँख खोलनेपर आपही दिखाई देने चाहिए। आज से आप विश्वास के साथ प्रयोग शुरु करो। चक्खुदयाणं के पद के साथ आँखें बंद कर प्रभु के दर्शन करो। दर्शन नहीं होते हैं तो हमें शिकायत करो। मैं परमात्मा से कहुँगी कि उन्होंने आँखे बंद करी तो आप आए क्यों नहीं? एकबार एक बच्चा नदी के तटपर खेल रहा था। अचानक उसका ध्यान उन योगीपर गया जो नाकपर उंगलि रखकर नाक दबाकर कुछ कर रहे थे। थोडी देर तक वह देखता रहा। प्रक्रिया पूर्ण कर महात्मा जब पानी में से बाहर आए तो बच्चे ने पुछा आप क्या कर रहे थे? योगीने सोचा बच्चे को क्या उत्तर दूं? अत: उसने बच्चे की भाषा में कहा कि भगवान के दर्शन कर रहा था। बच्चे ने सोचा ठीक हैं इसतरह से करने से भगवान के दर्शन होते हैं। तो मैं भी कर सकता हूँ। दूसरे दिन सूर्योदय के समय महात्मा की तरह तटपर खडे रहकर उसने प्रक्रिया का प्रारंभ किया। प्रक्रिया का बोध तो था नहीं कब और कैसे नाक दबाकर साँस लेना अबोध बालक कैसे समझे ? उसने तो दोनों नाक दबा ही लिए। घबराहट हो गई। पसीना छूट गया परंतु प्रक्रिया न छोडी। परमात्मा प्रगट हो गए बोलो क्या चाहिए? बालक ने कहा बस कुछ नहीं आपको देखना था। भगवान ने कहा ठीक हैं अब बोल तो सही कि क्या चाहिए? दिए बिना जाए वह भगवान नहीं, लिए बिना रहे वह भक्त नहीं। बच्चे ने कहा ठीक है फिर आज आने में बहुत विलंब किया कल नाकपर उँगली दबाते ही उपस्थित हो जाना। बच्चों जैसी निर्दोषता हममें हो तो भगवान हमारे सामने भी प्रगट हो सकते हैं। 144
SR No.032717
Book TitleNamotthunam Ek Divya Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherChoradiya Charitable Trust
Publication Year2016
Total Pages256
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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