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________________ विवश हूँ, बाकी तेरे स्तवन करने का मेरा कोई सामर्थ्य नहीं । इस गाथा में भक्ति, शक्ति और प्रीति का अद्भुत सामंजस्य बताया गया हैं। शायद ही अन्यत्र ऐसा विवरण उपलब्ध हो । मत्त्वेति नाथ शब्द में नाथ और इति शब्द महत्त्वपूर्ण हैं । न अथ इति नाथ । अथ अर्थात् प्रारंभ और इति अर्थात् अंत। आप कहते हो न, "मैंने इस बुक को अथ से इति तक पढ ली है अर्थात् प्रारंभ से अंत तक पढ ली है।” नाथ शब्द का अर्थ होता हैं जिसका प्रारंभ नहीं है । किसके प्रारंभ की यहाँ चर्चा की जा रही है? प्रभु का अनुग्रह करुणा, कृपा इसका कोई प्रारंभ नहीं है अर्थात् अनादि काल से है। भगवान ने हमारे उपर तब दया करी थी जब हम अव्यवहार राशि के अनादि निगोद में जन्म मरण कर रहे थे। सिद्ध भगवान अनुग्रह करके हमें व्यवहार राशि में लाए। व्यवहार राशि में आनेपर अरिहंत परमात्मा की अनंत करुणा हमपर बरसी। परमात्मा ने कहा, पहले तु तेरे स्वयं पर दया कर, करुणा कर, अनुग्रह कर फिर मेरे पास दया की याचना कर । जो स्वयं की जात पर दया नहीं कर सकता, जो स्वयं का नाथ नहीं बन सकता वह मुझे नाथ रुप में पहचान नहीं सकता । भगवान महावीर के अनन्य भक्त महाराजा श्रेणीक परंपरा से शैवधर्मी थे। जैन धर्म के वे कट्टर विरोधी थे। पत्नी चेलणा के प्रति उन्हें अनन्य प्रेम था परंतु उनके साथ भगवान महावीर या उनके संतों के दर्शन, श्रवण या भक्ति नहीं करने का नियम था । एकबार चेलणा के जन्म दिवस पर उनके कहने से वे मंडिकुक्षी उद्यान में गए। मंडी उद्यान में गुलाब का छोटा सा एक उपवन था जो चेलणा को अत्यंत प्रिय था । चेलणा श्रेणीक को उस उपवन में जन्म दिवस मनाने ले गई। वहाँ पहुंचते पहुंचते श्रेणीक महाराज प्रसन्न हो गए। अचानक राजा की नजर उस उपवन के एक द्राक्ष मंडप के नीचे बैठे हुए एक खुबसूरत पुरुष की ओर गई। वह था तो सुंदर परंतु साधु के वेष में ध्यान करके बैठा था। संत नीति को उपेक्षा की दृष्टि से देखनेवाले राजन् स्तब्ध हो गए। सोचने लगे, क्या हुआ होगा साधु का वैराग्य का कारण क्या हो सकता है? ऐसा कोनसा दुःख उसे आया होगा की उसे यह मार्ग अपनाना पडा। व्यक्ति पहले प्रेम में ही टूटता है। प्रेम में निष्फल व्यक्ति पूरे संसार को उपेक्षा की दृष्टि से देखता है। पैसे से टूटा आदमी पुन: पैसे प्राप्त कर सकता है। चाहे कारण प्रेम हो या पैसा मेरे पास हर कारण का निवारण है। प्रेम का धक्का होगा तो शादि कर दुंगा और पैसे का धक्का होगा तो उसे मैं सहाय कर सकता हूँ। मेरे पास अपार समृद्धि है। ऐसा सोचते हुए राजाने मुनि के दाहिने पैर के अंगुठे का स्पर्श किया। साधना में बैठे मुनियों का यह महत्त्वपूर्ण अंग है सारी प्राण उर्जाए साधना के समय में दाहिने पैर के अंगुठे में समाई हुई होती है। चेतना का यह एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। झुककर मुनि के पैर का चरण स्पर्श करते हुए राजा को देखकर चेलणा को आश्चर्य हुआ, आनंद हुआ और अहोभाव भी हुआ। यद्यपि राजा झुके जरुर थे, चरणस्पर्श भी कर रहे थे परंतु पर वे प्रणाम नहीं थे। आदर भी नहीं था । थी केवल आतुरता । उन्हें मुनि मानकर नहीं मित्र मानकर यह चेष्टा की जा रही थी । मूकभाव से चेलणा देखती रही। चरण स्पर्श होते ही मुनि ने ध्यान खोला, आँखे खोली और राजा की ओर देखा। राजाने मुनि के पाँव छोडकर हाथ पकड़ा और कहा, चलो ! उठो, क्या तकलीफ हैं? क्यों दीक्षा ली बताओ हमें । मुनि ने कहा, मैं अनाथ था इसलिए मैंने दीक्षा ली। राजा ने कहा, चल मैं तेरा नाथ बनूंगा। राजन् तुम स्वयं अनाथ 99
SR No.032717
Book TitleNamotthunam Ek Divya Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherChoradiya Charitable Trust
Publication Year2016
Total Pages256
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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