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________________ त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव। हम दो तरह से भगवान के सामने उपस्थित होते हैं एक तो स्वयं को समर्पित कर। परमात्मा को सर्वस्व मानकर जैसे हम परमात्मा को प्रसन्न कर रहे है। हममे से कई लोगों की ऐसी धारणा हैं कि हमारी समर्पण को देखकर भगवान खुश हो जाते है। दूसरा संबंध है लाचार और विवश होकर परमात्मा के पास जाना और जाकर उनकेपास अपलाप करना। मैं ने सबका बहुत किया जब मेरा समय आया तब किसी ने मेरी ओर नहीं देखा। इसतरब बेचारा बनकर भगवान के पास आता है। एकबार ऐसे ही एक भक्त के साथ भगवान ने कुछ संवाद किया। बोल माँ के साथ क्या हुआ? वह तो चालु हो गया। डॉ को दिखाया, दवाई लाकर दी, धर्मस्थान जाने के लिए पैसे दिए। तब भी माँ ने मेरे बच्चों को सम्हालने की मना कर दी। इसतरह भगवान आगे पूछते ही गए, पिता के साथ क्या हुआ, मित्र के साथ क्या, पत्नी के साथ क्या हुआ ? अब जब तू मुझे तेरा सर्वस्व मानता हैं तो जो सबके साथ हुआ वह मेरे साथ भी होगा। वहाँ तो कुछ तेरा चला नहीं इसलिए तू मेरे पास आया। आपको पता हैं धर्म स्थान में जो नेतागीरी करनेवाले होते हैं वे घर में झीरो बॅलेन्स होते है। घर में उनकी बिल्कुल नहीं चलती। बेटे, बहू, बच्चे उनकी मानते नहीं। पर धर्म स्थान में उनका वटहुकुम और दादागीरी देखनेवाली होती है। भगवान ने कहा, तेरी कही नहीं चली इसलिए तू मेरे पास आया कि यहाँ तेरा सब चल जाएगा। भक्त ने कहा, नहीं नहीं भगवान ऐसा नहीं हैं। भगवान ने कहा, फिर क्या हैं ? उसने कहा, मैं अनाथ हूँ। ऐसे देखो तो जगत् में मेरा बहुत कुछ हैं परंतु आपके सिवा मेरा कोई नहीं हैं और आपके सिवा मेरा कुछ नहीं है। परमात्मा ने कहा, वत्स! पहले तु तेरा नाथ बन जा फिर मेरे पास आना। भक्त ने कहा, हे नाथ! मैं अनाथ हूँ इसिलिए तो आपके पास आया हूँ। मैं अनाथ हूँ। मेरा कोई नाथ नहीं है - अणाहो मिनाहो मज्झ न विज्जई। इसतरह अनाथता का अनुभव हो जानेपर नाथ स्वयं कहते हैं - कहं नाहो न विज्जई ? तू स्वयं तेरा नाथ है। कैसे तू स्वयं को अनाथ समझ रहा है ? तंसि नाहो अणाहाणं सव्वभूयाणं- तू तो सर्व अनाथजीवों का नाथ है। जगत् के नाथ पाते ही हम स्वयं नाथ बन जाते है। तब हमार अंत:करण बोल उठता है - परमात्मा को नाथ स्वरुप में पाते ही - ततो हं नाहो जाओ, अप्पणो य परस्स य। सव्वेसिं चेव भूयाणं, तस्साणं थावराण य॥ जगत् का नाथ जब हमारा स्वयं का नाथ बन जाता हैं तब हमें अनुभव होता हैं, हम स्वयं अपने और दूसरे के तथा त्रस और स्थावर सभी जीवों के नाथ हो जाते हैं। भक्तामर स्तोत्र में नाथ शब्द की व्याख्या करती हुई एक महत्त्वपूर्ण गाथा है - मत्त्वेतिनाथतव संस्त्वन मयेद ! परमात्मा आप मेरे हो ऐसा मान लेनेपर हे नाथ! मेरे द्वारा आपके स्तवन का प्रारंभ हो रहा है। पूर्व सात गाथाओं में कही भी नाथ शब्द का प्रयोग नहीं हैं। इस आठवी गाथा में नाथ शब्द का प्रयोग मिलता है। सातवी गाथा में कहा हैं, तव संस्त्त्वेन पापं क्षणात्क्षयमुपैति। तेरे स्तवन से क्षणवार में पाप क्षय हो जाते हैं ऐसा मानकर ऐसा मत्त्वा शब्द का अर्थ है। अब स्तवन का प्रारंभ होता है। इसिलिए पांचवी गाथा में खुल्ला कहा हैं कि मैं तेरी भक्ति से
SR No.032717
Book TitleNamotthunam Ek Divya Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherChoradiya Charitable Trust
Publication Year2016
Total Pages256
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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