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________________ 41 जैनदर्शन :वैज्ञानिक दृष्टिसे कर, रोजी-रोटी प्राप्त कर सकें। ___ 'आहार-विज्ञान-प्रयोगशाला' के लिए विभिन्न जैन-जैनेतर सम्प्रदायों की विभिन्न मान्यताएँ प्राप्त करके उनके बारे में विभिन्न प्रयोग किये जाएँ तथा संबन्धित परिणाम/निर्णय समाज के सामने रखे जाएँ, साथ-साथ प्रयोग की संपूर्ण प्रक्रिया का मार्ग-दर्शन एवं प्रयोग की सावधानियाँ भी सूचित की जाएँ, जिसके आधार पर पाठक स्वयं भी प्रयोग कर सकें। __ बाज़ार में-से उपलब्ध विभिन्न खाद्य पदार्थ, जिन में निम्नकोटि के पदार्थों के मिश्रण की आशंकाएँ हों, प्राप्त करके वैज्ञानिक पद्धति के अनुसार उनका पृथक्करण किया जाए और किनकिन पदार्थों में किन-किन पदार्थों का मिश्रण किया जाता है, इसकी चेतावनी समाज को दी जाए । परीक्षण की सरल पद्धतियों का मार्गदर्शन इसलिए आवश्यक है ताकि श्रावक स्वयं अशुद्धियों से बच सकें । उदाहरण-स्वरूप चाय की पत्ती में इस्पात-लोह (आयर्न) के सूक्ष्म चूर्ण होने की आशंका रहती है, उसे लोह चुम्बक (मैग्नेट) की सहायता से अलग किया जा सकता है । यदि आप ऐसी आहार-विज्ञान-प्रयोगशाला की स्थापना करें तो मैं श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय में कौन-सी मान्यताएँ है और इन सबका आधार क्या है इस बारे में प्राप्त जानकारी और वैज्ञानिक आधार (यदि प्राप्त हुए तो) भेज सकूँगा । (2) आज समाज में प्रत्येक समर्थ साधु ने अपना अलग चौका जमाया है और जगह-जगह विभिन्न उत्सव कराये जाते हैं । इन उत्सवों का वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन करना बहुत खतरनाक है; क्योंकि वस्तुनिष्ठ-तटस्थ मूल्यांकन करना मतलब अन्धे-को-अन्धा और काने-को-काना कहना है । कोई भी व्यक्ति इस काम के लिए तैयार नहीं होगा । यदि ऐसे तटस्थ व्यक्ति मिल पाये तो भी यह मूल्यांकन जिस समाज, संस्था या व्यक्ति के बारे में होगा, वह समाज, संस्था या व्यक्ति उनका मुंह बंद करने की कोशिश में शाम, दाम या भेद नीति अपनायेगी । कोर्ट में भी मामले जा सकते है । उत्सव-प्रिय लोग अपने समर्थन में दलीलें देंगे और अपनी बात को सत्य सिद्ध करने का प्रयत्न करेंगे । ऐसे में तटस्थ रह पाना शायद मुश्किल होगा । वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन करने वाली एजेन्सी की स्थापना करने पर भी हमें उसके लिए आर्थिक सहयोग की आवश्यकता होगी और उसे ऐसे उत्सव-प्रिय लोगों से ही लेना पड़ेगा; क्या यह सब संभव है ? __(3) जैन साधु-समाज में शिथिलाचार बहुत ही व्यापक स्तर पर फैला हुआ है, इसे कोई भी इन्कार नहीं कर सकता । शिथिलाचार का मूल अज्ञानता और ध्येय-शून्यता है । अज्ञानता दोनों पक्षों-साधु और श्रावक - में है; अतः जब तक श्रावक या अधिकांश श्रावक-श्राविका वर्ग में-से अज्ञानता जड़ से दूर नहीं होगी और साधु समाज में से ध्येय-विहीनता और अज्ञानता दोनों दूर नहीं होंगे तब तक शिथिलाचार को खत्म करने की बात व्यर्थ है । साधु-समाज में ज्ञानध्यान की पिपासा अब लुप्त होने लगी है, उसका स्थान लिया है लोकैषणा और मानैषणा ने । इसके लिए उत्सव और उत्सव करने वाले धनी-वर्ग की आवश्यकता रहती है । उसे आकर्षित करने के लिए ज्योतिष और मन्त्र-तन्त्र का सहारा लिया जाता है और तब शिथिलाचार की
SR No.032715
Book TitleJain Darshan Vaigyanik Drushtie
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNandighoshvijay
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1995
Total Pages162
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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