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________________ 42 Jainism : Through Science दुर्भाग्यपूर्ण शुरूआत होती है । यदि प्रत्येक साधु कोई ज्ञाननिष्ठ ध्येय स्वीकार कर ले तो फिर उसी की प्राप्ति में उसका सारा जीवन बीत जाएगा । क्या हम अपने समाज के साधुओं को ऐसे उच्च ध्येय वाले साधु नहीं बना पायेंगे ? आज जैन ज्ञान-भण्डारों में सुरक्षित प्राचीन ग्रन्थ-राशि को प्रकट करने के लिए हज़ारों सुशिक्षित साधु-साध्वियों की आवश्यकता है । क्या हम इन साधु-साध्वियों को ऐसे संशोधन-सम्पादन कार्य में नहीं लगाना चाहेंगे? क्या श्रावकवर्ग धन की लालसा-तृष्णा की पूर्ति करने में ही लगा रहेगा और साधु के आचारगत नीति-नियमों का लेश भी ज्ञान प्राप्त नहीं करेगा ? यदि ऐसा हुआ (या है) तो आपके सब प्रयत्न निष्फल होंगे। (4) अनीति एवं अप्रामाणिकता आज के श्रावक-वर्ग के लक्षण बन चुके हैं । आज श्रावक (?) वर्ग में धन की तृष्णा इतनी ज्यादा बढ़ चुकी है कि अप्रामाणिकता को चोरी वह मानता ही नहीं है । आगे चल कर वह हिंसा-जन्य और हिंसक पदार्थों का सेवन और उत्पादन भी करता है, जूआ भी खेलता है, मानो कि सातों व्यसनों में चकचूर रहता है । खैर ! कुछ चुस्त श्रावक भी समाज में है; किन्तु उनकी संख्या बहुत अल्प; लाख में शायद एक-दो होगी। नीति और प्रामाणिकता श्रावकाचार का मूल है । इस-से-रहित श्रावक श्रावक ही नहीं है । नीति एवं प्रामाणिकता का सिंचन नयी पीढ़ी में कैसे किया जाए ? क्योंकि वर्तमान पीढ़ी संस्काररहित ही नहीं बल्कि कुसंस्कार-युक्त है । उसे संस्कार-सुरभित करने की जिम्मेदारी साधु-समाज की है । गुजरात में तो साधु-समाज इस दिशा में प्रयत्नशील है और विभिन्न प्रदेशों में वह सफल भी हुआ है; किन्तु जो ठोस काम होना है, वह तो धीरे-धीरे ही होगा । यह कार्य जितना जल्दी होता है, उतना वह क्षणजीवी भी होता है । हमें आशा है कि साधु-समाज यदि प्रयत्नशील रहे तो यह काम असंभव नहीं है। ___(5) परम्परित शिक्षण-संस्थाओं के बारे में आपका अनुभव सही है । शिक्षण-संस्थाओं के पास नेक, कर्तव्यनिष्ठ, निःस्पृह और संस्था-की-ओर ममत्व रखने वाले कार्यकर्ता होने चाहिये । जब ऐसी संस्था की स्थापना होती है, तब और उसके बाद ज्यादा-से-ज्यादा तीन-चार पीढ़ी तक ही ऐसे कार्यकर्ता प्राप्त होते हैं; बाद को संस्था के नये ट्रस्टी नौकरी करने वालों को अपना नहीं मानते तथा नौकरी करने वालों को संस्था के प्रति कोई ममत्व/लगाव नहीं रहता; परिणामतः संस्थाएँ धीरे-धीरे मरणासन्न हो पड़ती हैं और एक दिन ठप्प हो जाती हैं । ऐसी संस्थाओं का नवीकरण जटिल काम है । तन-मन-धन तीनों का भोग देने वाले, अपना सर्वस्व समर्पण करने की तैयारी के साथ कार्य करने वाले व्यक्ति, या व्यक्ति-समूह ही मरणासन्न शिक्षणसंस्थाओं में प्राण-संचार कर सकेंगे । ऐसे व्यक्तियों की खोज़ आवश्यक है। (6) सर्वेक्षण इकाई/प्रकोष्ठ स्थापित करने का सुझाव आपका अच्छा है; किन्तु उसके द्वारा प्राप्त जानकारी के आधार पर यदि कोई निर्णय लिया गया तो क्या समस्त जैन समाज उसे स्वीकार करेगा? यदि संयोगवश उसने मान भी लिया तो क्या उसके अनुसार प्रवृत्तियाँ होंगी? इस प्रश्र पर विचार करना आवश्यक है । नहीं तो, सरकारी तन्त्र में जिस तरह भ्रष्टाचार इत्यादि के बारे में
SR No.032715
Book TitleJain Darshan Vaigyanik Drushtie
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNandighoshvijay
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1995
Total Pages162
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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