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________________ ड्डा गौत्र की उत्पत्ति दसवीं शताब्दी में सोलंकी वंश में सिद्धराज जयसिंह नामक एक नामी व्यक्ति हुए, जिन्होंने पालनपुर से १९ मील की दूरी पर गुजरात में सिद्धपुरपाटन नामक नगर बसाया था। इनके पुत्र कुमार पाल ने सन १६० में जैन धर्म अंगीकार किया। इसके अनंतर इनके पौत्र राजा नरवाण ने पुत्र प्राप्ति की इच्छा से श्री भट्टारक धनेश्वरसूरिजी की खूब आवभगत की तथा अपनी मनोकामना पूर्ण होने पर जैन धर्म स्वीकार करने का वचन दिया। श्री धनेश्वरसूरिजी महाराज ने अम्बादेवी का स्मरण किया और इन्हें आशीर्वाद देकर आश्वासन दिया । ठीक समय में इनके एक पुत्र उत्पन्न हुआ और इन्होंने भी जैन धर्म की दीक्षा ली। तभी से इनकी कुलदेवी अम्बादेवी हुई जो आज तक इस खानदान में मानी जाती हैं । उस समय राजा नरवाण तथा इनके वंशज "श्रीपति" इस गौत्र से पुकारे जाते थे । इनके बाद तेलपादजी नामक एक राजा हुए, जिन्होंने सोलह गांवों में भगवान महावीर तथा भगवान ऋषभदेव के मन्दिर बनवाये । ऐसा कहा जाता है कि एक समय जब ये मंदिर तयार करवाने जा रहे थे, इन्होंने इनकी नीमों में तेल और घी के सैकड़ोंडब्बे कुदवाये जिससे इस खानदान का गौत्र “तिलेरा" प्रसिद्ध हुआ। इनकी २९वीं पीढ़ी में सारंगदासजी हुए, जिन्होंने जैसलमेर छोड़कर जोधपुर से .. मील उत्तर की ओर बसे हुए फलौदी को अपना निवासस्थान बनाया । ये बड़े बहादुर और साहसी थे। इन्होंने भारत के कई स्थानों में व्यापार के लिए यात्रा की तया इसी सिलसिले में सिंध की ओर भी गये । यहाँ पर सिंघ के अमीर ने इनकी कार्य कुशलता तथा बहादुरी से प्रसन्न होकर इनका बहुत सन्मान किया। इनका शरीर बहुत गठीला और मजबूत था। इनकी इस लोहे के समान शरीर की मजबूती को देखकर सिंध के अमीर ने इन्हें “ढद" * इस नाम से पुकारा था। इस शब्द का सिंधी भाषा में बहादुर यह अर्थ निकलता है। धीरे २ "ढद” यह शब्द अपभ्रंश होते २ डहा इस रूप में परिणत हो गया और इस वंश वाले इसी नाम से पुकारे जाने लगे। कालांतर से यह नाम गौत्र के रूप में परिणत हो गया । सारंगदासजी ने श्री भागचन्दजी महाराज के उपदेश से संवत् 100 में लँकागच्छ अंगीकार किया था कि जिसे इस वंश वाले आज तक मानते चले आ रहे हैं। • "ढद" यह शम दृढ़ इस शब्द का अपभ्रंश रूप प्रतोत होता है। २४.
SR No.032675
Book TitleOswal Jati Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOswal History Publishing House
PublisherOswal History Publishing House
Publication Year1934
Total Pages1408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size47 MB
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