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________________ ओसवाल जाति का इतिहास यत्संवेगमेरेण भावितमतिः शाहिः पुनः प्रत्यहं पूतात्मा बहु मन्यते भगवर्ता सदर्शनो दर्शनम् ॥ २१ ॥ इन आचार्य श्री का जन्म पालनपुर नगर में कुरां नामक एक ओसवाल सजन के यहाँ सं० १५४५ में हुआ था । इनकी माता का नाम श्री नाथीबाई था। संवत् १५९६ में तपेगच्छ के श्री विजयदानसूरिजी के उपदेश से आपने दीक्षा ग्रहण की । मुनि हीर हर्ष ने पहले अपने गुरू के पास तमाम साहित्य और शास्त्र का अध्ययन किया। फिर इनके गुरु ने धर्म सागर मुनि के साथ इन्हें दक्षिण के देवगिरी नामक स्थान पर अध्ययन करने के लिए नैयायिक ब्राह्मण के पास भेजा । पहाँ पर उन्होंने प्रमाणशास्त्र, तर्क परिभाषा, मित भाषिणि, शशधर, माणिकंठव, घरददाजि, प्रस्तपद भाष्य, वद्ध'मानेन्दु, किरणावली इत्यादि का अध्ययन करके वापस मरूदेश को अपने गुरूदेव के पास गये । वहाँ नडलाई (नारदपुर) में संवत् १६०७ में गुरुदेव ने इन्हें 'पण्डित' का और फिर संवत् १६०८ में 'वाचक उपाध्याय' का पद दिया । संवत् १६१० में इन्हें सिरोही में आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया और हीरविजयसूरि नाम रखा। इनका उत्सव दूधा राजा के जैन मंत्री-धरणाक के वंशज रासतपुर के प्रसिद्ध प्रसाद का निर्माण करवानेवाले. चांगा नामक सिंघवी ने किया। इस उपलक्ष्य में यहाँ के राजा ने अपने राज्य में होनेवाली हिंसा को बंद करवाया । संवत् ११३1 में इनके गुरू विजयदानसूरि का स्वर्गवास हो गया। उसी समय से ये स्वयं तपेगच्छ के नायक हो गये । इसी समय बादशाह अकबर ने फतहपुर सीकरी में मोक्ष साधक धर्म का विशेष परिचय प्राप्त करने की इच्छा से राज-सभा में बड़े २ विद्वानों की एक शास्त्र गोष्ठी कायम की थी । इस गोष्ठी में उन्होंने आचार्य हीरविजयसूरि को भी आमंत्रित किया था। उस समय हीरविजयसूरि का चातुर्मास गंधार बंदर में था । अकबर ने गुजरात के सूबे साहिवखाँ को फरमान के द्वारा सूचित किया कि हीरविजयसूरि को बहुत आदर और सम्मान के साथ यहाँ हमारे पास दरबार में भेजो ! अतएव कहना न होगा कि हीर विजय सूरि बड़े सम्मान और आदर के साथ स्थान २ पर ठहरते हुए फतेपुर सीकरी पधारे । बादशाह के मंत्री अबुलफजल ने उनका सत्कार किया । बादशाह ने स्वयं वहाँ आकर हाथी घोड़े इत्यादि की मेंट आचार्यश्री की सेवा में रखी । मगर निस्पृह जैनाचार्य ने उसको स्वीकार करने से इनकार कर दिया । तब बादशाह ने कहा कि आपको कुछ न कुछ तो अवश्य स्वीकार करना पड़ेगा। तब आचार्य ने कैदियों को कैद में से और पिंजर बद्ध पक्षियों को पीजरे से छोड़ देने और उन्हें आजाद * सम्राट ने विविध धर्मों का रहस्य समझ कर संवत् १६३५ में दीने इलाही नामक एक नवीन धर्म को प्रचलित किया था । यह धर्म सुधरे हुए हिन्दू धर्म का ही एक रूप था। सम्राट अकबर कहा करते थे कि जब तक भारतवर्ष में भनेक जातियाँ और अनेक धर्म रहेंगे तब तक मेरा मन शांत न होगा।
SR No.032675
Book TitleOswal Jati Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOswal History Publishing House
PublisherOswal History Publishing House
Publication Year1934
Total Pages1408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size47 MB
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