SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ओसवाल जाति का मवर्ष से आगरा जाकर बादशाह को समझाया और उस हुपम को रह करवाया। इन्हीं जिनचन्द्रसूरि ने पींचा गौत्र तथा संवत् १६२७ में १८ भौर गौत्र स्थापित किये । इनका स्वर्गवास संवत् १६७० में हो गया । श्री हीरविजयसूरि - श्री हीरविजयसूरि-अब हम एक ऐसे तेजस्वी और प्रभापूर्ण आचार्य का परिचय पाठकों के सम्मुख रखते हैं जिन्होंने अपनी दिन्य प्रतिभा से न केवल जैन समाज पर प्रत्युत अकबर के समान महान् सम्राट और प्रतापी राजवंशीय सभी पुरुषों पर अपना अखण्ड प्रभाव स्थापित किया था। इन आचार्य श्री की प्रतिभा सूर्य-किरणों की तरह तेजपूर्ण और चन्द्रकिरणों की तरह शीतल और जन-समाज को मुग्ध कर देने वाली थी। बादशाह अकबर के ऊपर इन आचार्य श्री का कितना प्रभाव था यह नीचे लिखी हुई प्रशस्ति, जो कि शत्रुजय तीर्थ के आदिनाथ मन्दिर में संवत् १६५० की लगी हुई है, से मालूम हो जायगा। पाठकों की जानकारी के लिये हम उस प्रशस्ति को नीचे लिख रहे हैं। दामेवासिल भूपमूईसु निजमाशां सदा धारयन् ... श्रीमान् शाहि अकम्बरो नरवरो [ देशेष ] शेषेप्वपि । पएमासाभयदान पुष्ट पटहोघोषा नर्वसितः कामं कारयति स्म हष्टहृदयौ यद्वाक् कला रंजितः ॥ १७॥ यदुपदेशवशेन मुदं दधन् निखिल मण्डलवासि जने निजे । मृतधनं च करं च सुजीजिया भिधमकब्बर भूपति रत्य जत् ॥ १८ ।। यद् वाचा कतकामया विमालतस्वांतांबुपूरः कृपा पूर्ण शाहिर निन्ध नीतिवनिता कोड़ी कृतात्मात्यजत् । शुक्लं त्यक्तु मशक्यमन्यधरणीराजांजन प्रीतये .. तद्वान् नार्डज पुंज पुरुष पशूश्चामूमुचद् भूरिशः ॥ १६ ॥ यद् वाचां निचयैर्मुधाकृत सुधा .स्वादैरमंदैः कृता ल्हादः श्रीमद्कब्बरः क्षितिपतिः संतुष्ठि पुष्ठाशयः । त्यक्त्वा तत्करमर्थ सार्थमतुलं येषां मनः प्रीतये __ जैनभ्यः प्रददौ च तीर्थतिलकं शत्रुजयोवधिरम् ॥ २० ॥ यद्वाग्भिर्मुदितश्चकार करुणा स्फूर्जन्मनाः पौस्तकं भाण्डागारमपारवाङ्मयमयं वेश्मेव वाग्दैवतम् ।
SR No.032675
Book TitleOswal Jati Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOswal History Publishing House
PublisherOswal History Publishing House
Publication Year1934
Total Pages1408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size47 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy