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________________ कार्य मापके सुपुर्द हो गया। संवत् १८४८ में मेला हिन्दूमलजी बादशाह पास देहली गये। वहां बादशाह को अपने कार्यों से खुश कर अपने स्वामी महाराजा रतनसिंहजी के लिये भाप नरेन्द्र शिरोमणि का सम्मानीय खिताब लाये। इससे खुश होकर महाराजा ने आपमे 'महाराव' का खिताब प्रदान किया। तथा घर पधार कर मोतियों का हार इनायत किया। जिस समय वहाँ के रेसिडेण्ट मि० सदरलैण्ड थे, उस समय काबुल और जोधपुर के हमले में महाराव हिन्दूमलजी ने कासीद व रसद भेजने का बहुत अच्छा इन्तजाम किया था। भारत सरकार भी आपका बहुत विश्वास करती थी । यहाँ तक कि जयपुर के तत्कालीन एजेण्ट जब स्वर्गवासी हो गये तब वहाँ का शासन भी आपकी राय से किया गया था। रियासत बीकानेर की बोर से सालाना २२ हजार रुपया भारत सरकार को फौज खर्च के लिये देना पड़ते थे। आपने सरकार से कह सुन कर इस कर को माफ कर. पाया। आपके उचित प्रबन्ध के कारण सरकार ने बीकानेर में एजेण्ट रखना भी उचित नहीं समझा। ... एक बार हनुमानगढ़ और भावलपुर की सरहद का मामला बढ़ गया यहाँ तक कि बाकी तमाळा हो गया, उस समय आपने बड़ी बुद्धिमानी, खूबी एवम् मेहनत से इस मामले को निपट दिया और जमीन का बटवारा कर दिया। मौके की जमीन होने से इसमें बहुत से गाँव भावाद हो गये। ऐसा करने से राज्य की आमदनी में बहुत वृद्धि हो गई। मि० कर्मिघम आपके कार्यों से बड़े खुश रहा करते थे। एक बार वे आपको शिमला के गये। यहाँ तत्कालीन पाइसराव मिहाडिज से भापकी मुलाकात करवाई। इस बार शिमला दरबार में भारत सरकार ने आपको सिष्ठत प्रदान की। इस समय के पत्र का सारांश नीचे दिया जा रहा है: __ "सन् १८१६ की ३ री मई कोराईट मारेबल गवरनर जबरलाई हालिंज शिमला दरकार के वक्त मेहता महाराव हिन्दूमल दीवान बीकानेर से मिले और खिसा पक्षी । श्रीमान् में उनके धीहरे और सचरित्र के मुताविक इज्जत के साथ बर्ताव किया। संवत् १८९० में जब कि महाराजा रतनसिंहजी और स्वयपुर के तत्कालीन महाराणा सरदारसिंहजी श्री लक्ष्मीनाथजी के मन्दिर से दर्शन कर वापस आये तब गोठ भरोगने आपकी हवेली पर पधारे । इस समय दोनों दरवार ने एक २ कण्ठा महाराव हिन्दूमलजी को, मेहता मूलचन्दजी को और मेहता छोगमलजी को पहना कर सम्मामित किया। इसी भवसर पर महाराणा ने महाराजा से कहा कि हमारी उदयपुर रियासत की भी भोलावण महारावजी को दीजावे। यह सुन कर महाराजा साहब ने महाराव हिन्दू मलजी से कहा 'हिन्दू मल सुणे हे। इसके उत्तर में महारावजी ने हाथ जोड़ कर निवेदन किया
SR No.032675
Book TitleOswal Jati Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOswal History Publishing House
PublisherOswal History Publishing House
Publication Year1934
Total Pages1408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size47 MB
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