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________________ श्रीसवाल जाति का इतिहास फौज में भण्डारी प्रताप मलजी के साथ और बलूंदे के पास झगड़े में सिंवी गुलराजजी के साथ साँड खींवराजजी गये थे । इन युद्धों में सम्मिलित होने के लिए इनको रतनपुरा का ढीवड़ा और एक बावड़ी इनायत हुई थी। संवत् १८९७ में आपका स्वर्गवास हुआ। आपके पुत्र शिवराजजी तथा पौत्र तेजराजजी भी रियासत के साथ लाखों रुपयों का लेन-देन करते रहे । आप लोग जोधपुर के प्रधान सम्पतिशाली साहुकार थे । साँढ तेजराजजी जोधपुर में दानी तथा प्रसिद्ध व्यक्ति हो गये हैं । आपका स्वर्गवास १९४८ में हुआ । आपके पुत्र रङ्गराजजी तथा मोहनराजजी हुए। सेठ रङ्गराजजी १९५८ में स्वर्गवासी हुए। तथा सेठ मोहनराजजी विद्यमान हैं। आपका जन्म संवत् १९३८ में हुआ | आपके समय में इस फर्म का व्यापार फैल हो गया । तथा इस समय आप जोधपुर में निवास करते हैं। रंगराजजी के नाम पर अमृतराजजी दत्तक हैं । सेठ केवलचन्द मानमल सांढ, बीकानेर अठारहवीं शताब्दी में इस परिवार के पूर्व पुरुष सेठ सतीदानजी मेड़ता से बीकानेर आये । आपके हुकुमचन्दजी और हुकुमचन्दजी के केवल चन्दजी नामक पुत्र हुए। आपने सम्वत् १८९० में उपरोक्त नाम से गोटाकिनारी की फर्म स्थापित को।। इसमें आपको बहुत सफलना रही । आप मन्दिर संप्रदाय के सज्जन थे । आपके पाँच पुत्र हुए जिनके नाम सदासुखजी, मानमलजी, इन्द्रचन्दजी, सूरजमलजी और प्रेमसुखजी था । आप सब लोगों का परिवार स्वतन्त्र रूप से व्यापार कर रहा है। सेठ मानमलजी बड़े प्रतिमावान व्यक्ति थे । आपने दिल्ली में अपनी एक फर्म स्थापित की थी और आप ऊँटों द्वारा वहाँ माल भेजते थे । इसमें आपको अच्छी सफलता रही। आपके धार्मिक विचार अच्छे थे। आपका स्वर्गवास हो गया। आपके केसरीचन्दजी नामक पुत्र हुए I वर्तमान में सेठ केशरीचन्दजी ही व्यापार का संचालन कर रहे हैं। आपके हाथों से इस फर्म के व्यापार की ओर भी तरक्की हुई। आपने दिल्ली के अलावा कलकत्ता में फर्म खोली । इस प्रकार इस समय ओपकी तीन फर्मे चल रही हैं। आपका स्वभाव मिलनसार और उदार है । आपने स्थायी सम्पत्ति रखा । बीकानेर में कोट दरवाजे के पास वाला कटला आपही का है। खर्च हुआ। इस समय आपके कोई पुत्र नहीं है । भी यही काम करने के लिये आप मन्दिर मार्गीय व्यक्ति हैं । बढ़ाने की ओर भी काफी ध्यान इसमें करीब १ || लाख रुपया भाभू भाभू गौत्र की उत्पत्ति — कहा जाता है कि रतनपुर के राजा ने माहेश्वरी वैश्य समाज के राठो गौत्रीय भाभूजी नामक पुरुष को अपना खजांची मुकर्रर किया । जब राजा रतनसिंहजी को सांप ने डसा, और जैनाचार्य जिनदत्तसूरि ने उन्हें जीवनदान दिया । तब राजा अपने मन्त्री, खजांची आदि सहित जैनधर्म अंगीकार किया । इस प्रकार खजांची भाभूजी की संताने "भाभू" नाम से सम्बोधित हुईं। ६०.०
SR No.032675
Book TitleOswal Jati Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOswal History Publishing House
PublisherOswal History Publishing House
Publication Year1934
Total Pages1408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size47 MB
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