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________________ (31) जो सहस्सं सहस्सेन संगामे मानुसे जिने। एकं च जेय्यमत्तानं स चे संगामजुत्तमो॥ जो युद्ध में हजारों-हजार मनुष्यों को जीत ले, उसकी अपेक्षा तो अपने को जीत लेना वाला ही उत्तम युद्ध विजेता है। इस प्रकार उपर्युक्त दोनों गाथाओं में भाषागत एवं तात्पर्य की दृष्टि से पर्याप्त साम्य है। इसी प्रकार दशवैकालिक सूत्र की एक गाथा है कहं नु कुज्जा सामण्णं, जो कामे न निवारए। पए पए विसीयंतो, संकप्पस्स वसं गओ॥ जो काम का निवारण नहीं करता तथा संकल्प के वशीभूत होकर पद-पद पर विषाद को प्राप्त होता है, वह कैसे श्रमण धर्म का पालन करेगा? इसकी तुलना संयुक्त निकाय की निम्नलिखित गाथा से की जा सकती है कतिहं चरेय्य सामनं चित्तं चे न निवारये। पदे पदे विसीदेय्य संकप्पानं वसानुगो ति॥ कितने दिनों तक श्रामण्य का पालन करेगा, यदि अपने चित्त को वश में नहीं कर सकता है। संकल्पों के वश में रहता साधन पद-पद पर विषाद को प्राप्त होता रहेगा। दशवैकालिक एवं संयुत्तनिकाय की इन गाथाओं में शब्दावली एवं कथ्य भाव की दृष्टि से पर्याप्त साम्य है। ये गाथा श्रमण परम्परा के उपदेश में साम्य का संकेत करती हैं। प्रस्तुत शोधपत्र में ऐसी समान एवं आंशिक साम्य रखने वाली गाथाओं की चर्चा की जाएगी। कहीं गायांश या गद्यांशों के साम्य की भी चर्चा प्रस्तुत आलेख में की जाएगी। इन गाथाओं में पालि एवं प्राकृत भाषाओं की निकटता एव बुद्ध तथा महावीर के उपदेशों में एकसूत्रता का भी अन्वेषण सम्भव हो सकेगा। शोध पत्र में प्राकृत एवं पालि गाथाओं में निम्नाहिकत साम्य की विशेष चर्चा की जाएगी। (1) अभिप्राय गत समस्या (2) भाषागत समस्या *****
SR No.032621
Book TitleIndian Society for Buddhist Studies
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrachya Vidyapeeth
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2019
Total Pages110
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size7 MB
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