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________________ हमारा काम, गुप्ति (खासकर मनोगुप्ति) द्वारा साधना करनी हैं । मनोगुप्ति का अभ्यास करने के लिए इकट्ठे हुये हैं । उसके पहले पांच समिति आत्मसात् बन गई हैं, ऐसा समझकर चलते * आचारांग वगेरह प्रत्येक आगम भगवान स्वरूप हैं । प्रत्येक अक्षर या पंक्ति भगवान स्वरूप हैं । * कोई मुझे पूछे : किसका ध्यान धरते हों ? मैं कहता हूं : भगवान का ध्यान धरता हूं। जहां भगवान न हो ऐसे कोई ध्यान-ब्यानकी मुझे जरुरत नहीं । हमारा कोई भी कार्य भगवानकी कृपा से ही सिद्ध होगा, इतना हमेशा के लिए आप लिखकर रखें । * मनोगुप्ति के तीन स्टेप हैं । प्रवचनकी माता क्यों कही गई ? अध्यात्म-जगतमें माता जैसा काम कर सकती हैं । अष्ट प्रवचन माताकी गोदमें रहे हुए मुनिकी बराबरी इन्द्र भी नहीं कर सकते । छोटा बालक मा के बिना नहीं जीता, उसी तरह मुनि अष्टप्रवचन माता के बिना जी नहीं सकता । सात माता (मनोगुप्ति को छोड़कर) का अभ्यास होगा तो मनोगुप्ति का अभ्यास आसानी से हो सकेगा। मनकी चार अवस्थाएं : विक्षिप्त, यातायात, सुश्लिष्ट और सुलीन । __ बाहर के सभी संयोग मन के लिए शराब है, जिससे मन उत्तेजित होता रहता हैं । जैन लोग T.V. वगेरह रखते हैं, उसकी मैं कल्पना भी नहीं कर सकता । सुनता हूं तब स्तब्ध हो जाता हूं। ध्यानार्थीओं को सूचना कि वापस घर जाकर T.V. न देखें । अरे, घरमें टी.वी. रखना ही नहीं चाहिए । यहां निर्मल बनो और T.V. देखकर मलिंन बनो, ऐसा मत करना । गधा स्नान कर फिर कचरे के डिब्बे में आलोटता हैं, ऐसा मत करना । T.V. वगेरह सब निकाल देना । किहे कलापूर्णसूरि - ४ 000000000000000000000 २५)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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