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________________ देते, भगवान को आगे रखते हैं, पूज्य देवचन्द्रजीकी तरह हम निमित्त कारण को आगे रखते हैं । हम ही भगवान के हों तो हमारा नमस्कार हमारा कैसे हो सकता हैं ? हम पूरे ही वाहन में बैठे हों तो हमारा सामान हमारे उपर भाररूप कैसे बन सकता हैं ? नमस्कार भी भगवान ले लें तो हमारे पास रहा क्या ? ऐसे विचारकर चिंतातुर मत होना । हमारे सेठ (भगवान) इतने उदार हैं कि वे हमारे नमस्कार रख नहीं देते, लेकिन अनेकगुने बढ़ाकर वापस देते हैं । हम अभी तक भगवान को संपूर्ण समर्पित नहीं बने हैं । समर्पित बने हों तो जुदाई कैसी ? मैं स्वयं साथ हूं। मुझमें इतना समर्पण भाव नहीं प्रगटा हैं । पू. हेमचन्द्रसागरसूरिजी : यह सब बहुत कठिन हैं । पूज्यश्री : कठिन तो हैं लेकिन करना हैं । आपके जैसे वक्ता यहां सुनने के लिए आते हैं, यही योग्यता का सूचक हैं । आपके जैसे अनेकों को पहुंचाएंगे ।। पू. हेमचन्द्रसागरसूरिजी : हम तो आपको लूटने आये हैं।। पूज्यश्री : अब आप भी दूसरों को देना । मेरे जैसे 'कंजूस' मत बनना । पू. हेमचन्द्रसागरसूरिजी : कंजूस शब्द का प्रयोग शुभ समयमें हुआ हैं । पूज्यश्री : उस दिन आगम-परिचय वाचनामें मैंने भगवती के लिए (घण्टे-डेढ़ घण्टे के लिए)ना कह दी थी तो आपको कंजूसी लगी होगी, लेकिन स्वास्थ्य के कारण ज्यादा खींच सकू ऐसा न लगने के कारण ना कही थीं, बाकी कहां एतराज था ? पू. हेमचन्द्रसागरसूरिजी : नहीं, ऐसा तो मेरे मनमें भी नहीं था । यह बात तो पू. कल्पतरुविजयजी से हो गई थी । परसौं तो आप पोणा घण्टा बहुत ही स्वस्थता से बोले थे । पूज्यश्री : १५-२० मिनिट का बोलकर ३०-४० मिनिट हो जाये तो एतराज नहीं, परंतु घण्टे का वचन देने के बाद २० मिनिट में पूरा नहीं कर सकते, समझे ? (१४ 80oooooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ४)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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