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________________ इसी दृष्टिकोणसें मैं कहता हूं : एक तीर्थंकर की स्तवना सर्व तीर्थंकरों को पहुंचती हैं । एक तीर्थंकर का प्रभाव आप झेलते हों, तब सभी तीर्थंकर का प्रभाव झेलते हों । एक तीर्थंकर को प्रेम करते हो तब आप सर्व तीर्थंकरो को प्रेम करते हो । एक तीर्थंकर को आप प्रेम करते हों तब सर्व तीर्थंकरो के नाम, स्थापना, आगम आदि सब पर प्रेम करते हो । . जो नाम प्रभु के साथ अभेद साधता हैं, फिर मूर्ति के साथ अभेद साधता हैं उसी को ही भाव भगवान मिल सकते हैं। इसीलिए ही हमें यहां (भरतक्षेत्रमें) रखे गये हैं। जिससे नाम-स्थापना की भक्ति कर भाव-भगवान की भूमिका का निर्माण कर सकें । हम नाम-नामी को बिलकुल भिन्न मानते हैं, उसी के कारण हृदय से भक्ति कर नहीं सकते हैं । अभी भगवतीमें हम पढ़कर आये हैं : गुण-गुणीका कथंचित् अभेद होता हैं । अगर ऐसा न होता तो गुण और गुणी दोनों अलग-अलग हो जाते । गुण-गुणी की तरह नाम-नामी का भी अभेद हैं । नाम, मूर्ति और आगममें तो भक्त, भगवानको देखता ही हैं, आगे बढ़कर चतुर्विध संघके प्रत्येक सभ्यमें भी भगवान देखता हैं । तीर्थ तीर्थंकर से स्थापित हैं । गुरु शिष्य के उपर उपकार करते हैं वह भी वस्तुतः भगवानका ही उपकार हैं । गुरु तो मात्र वाहक हैं, माध्यम हैं। शास्त्रोंमें वहां तक कहा हैं : हम भगवानको नमस्कार करते हैं वह नमस्कार भी हमारा नहीं, भगवानका गिना जाता हैं, नैगमनयसे । नमस्कार मैंने किया वह भगवानका कैसे ? दलालने सेठकी तरफसे कमाई की, लेकिन वह सेठ की ही गिनी जाती हैं न...? रसोइया खिलाता हैं, लेकिन खाना तो सेठ का ही कहा जाता हैं न...? नौकरने गधा खरीदा, किंतु वह सेठ का ही गिना जाता हैं न...? हम चतुर्विध-संघ के सभी सभ्य भगवान के हैं न...? कानजी के मतकी तरह हम सिर्फ उपादानको ही महत्त्व नहीं कहे कलापूर्णसूरि - ४0000000 000 १३)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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