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________________ मात्र थोड़ीसी दिशा बदलो तो विराधनाका मार्ग आराधनाका मार्ग बन जायेगा । जिस मार्ग से दुर्गतिनगरी आनेवाली थी, उसी मार्ग से पीछे लौटते सद्गतिनगरी आयेगी । आत्मारामजी म. जैसे उत्कृष्ट प्रभावक पुरुष भी भगवान के पास आकर रोये हैं, अपनी बड़ाई नहीं रखी । हमारे जितने दोष दुनिया जाने उतना अच्छा ! जितनी हमारी निंदा होगी उतना अच्छा । उतने ज्यादा कर्मोकीं निर्जरा होगी । बिना पैसे यह धोबी आपके कपड़े धो दे वह कम बात हैं ? पू. कलाप्रभसूरिजी : वह बेचारा कर्म बांधेगा उसका क्या ? पूज्य श्री : महाराजा जा रहे थे और आमको मारने के लिए फेंका हुआ पत्थर राजाको लगा । महाराजाने उस लड़के को १००० सुवर्ण मुद्राओं का इनाम दिया । मंत्रीने कहा : कल आपको हजार पत्थर खाने पड़ेंगे । क्योंकि सबको इनाम मिलेगा, ऐसी आशा होगी ! आपका प्रश्न भी ऐसा ही हैं । महाराजाने कहा : मैं ऐसा मूर्ख नहीं हूं कि ऐसे मारनेवाले को इनाम दूं । जिनका इरादा ऐसा हो उनको तो सजा ही करूंगा. किंतु इस बालकका इरादा कोई मुझे मारने का नहीं था, फल लेने का था । एक वृक्ष भी पत्थर मारनेवाले को फल देता हैं, तो मैं मनुष्योंमें भी मैं राजा और इसे सजा दूंगा ? मैं वृक्षसे भी गया ? राजाका यह ऐंगल था । प्रत्येकका ऐंगल समझना चाहिए । हमें समाधि रखने के लिए यह ऐंगल हैं : निंदक उपकारी हैं । इसके स्वयंका एंगल अलग हैं : इसे तो ऐसे ही विचारना चाहिये : (यदि यह विचार सके ऐसा हो तो) 'निन्द्यो न कोऽपि लोके । ' 'विश्वमें किसी की भी निंदा से मेरा क्या होगा ?' दोनों के अपने-अपने एंगल - दृष्टिकोण होते हैं । इस तरह अपनायें तो दोनों सच्चे ! दूसरेका दृष्टिकोण स्वयं अपना लें तो दोनों जूठे ! कहे कलापूर्णसूरि ४ 3 ७३
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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