SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 102
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विद्याशालामें था । मैं शामको बहिर्भूमि के लिए गया । वर्षा हुई । सामने पू.आ.श्री मंगलप्रभसूरिजी (उस समय पं.म.) सामने मिले । कपड़े भीगे हुए थे। मैंने पूछा : आपके जैसे ऐसे बारिसमें बाहर बहिर्भूमि के लिए जायें इसके बजाय वाड़ेमें जाय तो क्या तकलीफ हैं ? उन्होंने कहा : 'देखो, बारिसमें भीगते जाना अच्छा, किंतु वाड़ेमें जाना अच्छा नहीं ! बारिसमें स्थावरकी विराधना हैं, जबकि वाड़ेमे त्रसकी विराधना हैं । फिर बुरी परंपरा पड़े वह अलग ।' * बहुत गृहस्थ पैसे दे सकें ऐसे न हो तब दिवाला फूंकते हैं । उसी तरह कितनेक प्रायश्चित्त पूरा करने में असमर्थ हो वे आलोचना लेना ही बंद कर देते हैं । महानिशीथमें लिखा हैं : एक अनालोचित पाप भयंकर दुर्गतिमें ले जाता हैं । जिस पापकी आलोचना लेने का मन न हो, वह पाप-कर्म निकाचित समझें । हम तो स्थूल पापोंकी आलोचना लेते हैं, सूक्ष्म विचारों को तो बताते ही नहीं । अनालोचित पापवाले हमारा क्या होगा ? उत्तम आत्मा शायद पाप करती हैं, किंतु बाद में उनको बहुत ही पश्चात्ताप होता हैं । जिसे पाप करने के बाद पश्चात्ताप का भाव जागृत नहीं होता, वह समझ लें : मेरा संसार अभी बहुत बाकी हैं । उपा. मानविजयजीकी तरह कह सकते हैं : 'क्युं कर भक्ति, करुं प्रभु तेरी ।। काम, क्रोध, मद, मान, विषयरस छांडत गेल न मेरी...' उसकी आत्मा निकट मोक्षगामी समझें । इस छोटेसे स्तवनमें हमारी साधनामें रुकावट करते प्रायः सभी दोष आ गये हैं। पुराने संगीतकार (दीनानाथ बगैरह जैसे) ऐसे गीतोंको बहुत ही पसंद करते थे । ये दोष भक्तिके लिए विघ्न हैं । इन्हें दूर किये बिना भक्ति आत्माके साथ नहीं जमेगी । मानविजयजी कहते हैं : हम परनिंदा और स्वप्रशंसा करते हैं। अब इसे बदल दो । दूसरे की प्रशंसा और स्व-निंदा करो । (७२0000 saaaaaaasana कहे कलापूर्णसूरि - ४)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy