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________________ नहीं बोलते । क्या कारण है ? पूज्यश्री : जगचिन्तामणि का भाव सकल कुशल वल्ली० में आ गया । यही कारण है । आप सोचोगे तब ध्यान आ जायेगा । अक्षर अर्थ की ओर ले जाते हैं, अभिधान, अभिधेय की ओर ले जाते हैं । यह नियम है, परन्तु आप तो जगचिन्तामणि आदि के अक्षर इतनी तीव्र गति से बोलते है कि अक्षर ही पकड़े नहीं जाते तो फिर अर्थ कहां से पकड़े जायें ? गोचरी में आप जो जो नाम गिनाओ, वे वस्तुएं आपके पात्रों में आ जाती हैं कि नहीं ? क्या नाम - नामी का सम्बन्ध समझ में आता है ? यहां जगचिन्तामणि बोलते समय उस प्रकार के भगवान हमारे मानसपटल पर क्यों न आयें ? चिन्तामणि तो जड़ है । भगवान परम चैतन्यरूप हैं । यह भारी अन्तर है। ऐसे चिन्तामणि से क्या मांगोगे ? 'सकल प्रत्यक्षपणे त्रिभुवन-गुरु, जाणूं तुज गुण ग्रामजी; बीजुं कांई न मागू स्वामी ! एहिज छे मुझ कामजी ।' पू. देवचन्द्रजी महाराज की इस प्रार्थना में क्या बाकी रहा ? केवलज्ञान तक का आ गया । __यह सब समझ कर यदि आप जगचिन्तामणि बोलेंगे तब अपूर्व भावोल्लास बढ़ेगा । _ 'भगवान जगन्नाह' - भगवान जगत् के नाथ हैं उस प्रकार वे जगत् के गुरु भी हैं, जगत् के रक्षक भी हैं । (जग-रक्खण) दुर्गति दुर्भाव से होती है। भगवान दुर्भावों को रोक कर हमें दुर्गति से बचाते हैं । इस तरह भगवान जगत् के बन्धु हैं । भगवान ठेठ मोक्ष तक पहुंचाने वाले सार्थवाह हैं । जगसत्थवाह ! भगवान के संघ में एक बार आप जुड़ जायें । फिर मोक्ष तक का उत्तरदायित्व भगवान का ।। (५४00000000000000000000 कहे कलापूर्णसूरि - ३)
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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