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________________ पूज्य आचार्यश्री प्रद्युम्नविमलसूरिजी : अपना दुःख भूलकर दूसरों के सुख का विचार करना मैत्री है । जो 'पर' के लिए जीता है वही परमात्मा कहलाता है । ऐसे महापुरुषों के साथ यदि ऋणानुबंध बंध जाये तो भी काम हो जाये । अश्व को प्रतिबोध देने के लिए मुनिसुव्रतस्वामी भगवान को आना ही पड़ा । ऐसे अध्यात्म योगी सद्गुरु पूज्य आचार्यदेव (पू. कलापूर्णसूरिजी) के साथ हम सम्बन्ध जोडेंगे तो क्या हमारा काम नहीं होगा ? 'सद्गुरु मेरा सूरमा करे शब्दों की चोट ।' एक भी जीव ऐसा नहीं हो सकता कि जिसे सद्गुरु के बिना मार्ग मिला हो । ये गुरु भगवान के रूप में मिले हैं। जीवन में उनकी प्रतिष्ठा हो जाये तो काम बन जाये । मोह नष्ट करने के लिए गुरु-कृपा ही अनिवार्य है । चन्दन के नन्दन-वन की सुगन्ध सदा प्राप्त होती रहे । चन्दन में आम लगे तो वह चन्दनाम्र कहलाता है । उस आम में चन्दन की सुगन्ध उत्पन्न होती है । पुष्प में सुगन्ध, मकरंद, रंग एवं मार्दव होता है । हमें भक्ति का रंग, मैत्री की मृदुता, ज्ञान का मकरंद एवं गुणों की सुगन्ध प्राप्त करनी है । * एक संवाद : 'पुष्प ! तू सुन्दर खिला है, परन्तु सायंकाल में तू मुरझा जायेगा।' 'हे मानव ! क्या तू स्वयं मिट्टी में नहीं मिलने वाला है ? मैं तो सुगन्ध फैलाऊंगा, तू क्या करेगा ?' पुष्प का उत्तर बताता है कि हे मानव ! तू भी इस जीवन में कुछ करता जा ।। सदा ऐसा वातावरण, ऐसे गुरु और एसा ही माहौल मिले, यही कामना है। __ अचलगच्छीय पूज्य गणिश्री महोदयसागरजी : मंगलमय विश्व मैत्री की बात कर रहे हैं तब विश्व-मैत्री से युक्त दो गुजराती पद्यांशो का पठन करके तत्पश्चात् मैत्री पर बोलेंगे । ___ 'सकल विश्वमा शान्ति प्रगटो, थाओ सौ कोईन कल्याण । . सर्व जगत्मां सत्य प्रकाशो, दिलमां प्रगटो श्री भगवान ॥ (कहे कलापूर्णसूरि - ३ 506655566555 Bosses ४१)
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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