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________________ तीर्थंकर-रूप संघ के दर्शन परम पुन्योदय से होते हैं । परम पुन्योदय से सभी धर्म-सामग्री प्राप्त हुई है। अब संकल्प करें कि मुझे कोई पाप नहीं करना है । 'सव्वपावप्पणासणो' मेरे नमस्कार से अनन्त-अनन्त पाप नष्ट होते हैं । __ कदाचित् कोई पाप हो जाये तो पश्चाताप करें । अइमुत्ताजी को पश्चाताप से केवलज्ञान प्राप्त हुआ था । कोई दुःखी मत बनो । जब तक संसार है तब तक दुःख है । दुःखमय संसार से जो मुक्त हो गये हैं वे सिद्ध हैं । 'ओं ही नमो सिद्धांणं' का जाप करने से अनन्त सिद्धों को नमस्कार होता है। 'जगत् के सभी जीव सर्व दुःखों से मुक्त हों ।' जड़-राग एवं जीव-द्वेष ही अनादिकाल से हम करते आये हैं । एक साधकने ब्रह्मा को कहा - 'सुख प्राप्त हो वैसा कुछ दो ।' ब्रह्मा ने कहा, 'ये दो गठरियां ले । एक में तेरे जीवन के पाप हैं । दूसरे में तेरे पड़ोसी के पाप हैं । तेरी गठरी आगे और पड़ोसी की गठरी पीछे रखना ।' परन्तु नीचे उतरते समय गठरी आगे-पीछे हो गई । इस रूपक का चिन्तन कितना प्रेरक है ? मनुष्य को सदा पड़ोसी के ही पाप दृष्टिगोचर होते रहते हैं, स्वयं के कदापि दृष्टिगोचर नहीं होते । पडोसी की गठरी आगे और स्वयं की पीछे हो गई है। __पूज्य मुनिश्री धुरन्धरविजयजी : एक अजैनों की बस्ती में रात को मेरा प्रवचन हुआ । प्रवचन पूरा हुआ तो भी कोई उठा नहीं । नौ से दस, दस से ग्यारह, ग्यारह से बारह बज गये । लोगों ने कहा, 'आप नहीं उठेंगे, तब तक हम नहीं उठेंगे ।' अजैनों में भी इतना विनय हो तो हम जैनों में कितना विनय होना चाहिये ? अब आप में से कोई नहीं उठेगा, ऐसी मेरी अपेक्षा है । (४० 65 6 samasoma कहे कलापूर्णसूरि - ३)
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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