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________________ किन्हीं भी संयोगों में गुरु को न छोड़ें, गुरु के प्रति बहुमान न छोड़ें । यदि वह छूट गया तो, कदापि मोक्ष नहीं होगा । यदि आपने गुरु को छोड़ दिया तो आपको भी आपके शिष्य छोड़ देंगे, अव्यवस्था की परम्परा में आप निमित्त बनेंगे । * मैत्री :. दूसरों के हित का विचार । यहां स्व-हित का विचार नहीं लिखा । अपनी सुविधा के लिए जितना विचार आये, उतना विचार दूसरों के लिए आये, तब मैत्री उत्पन्न होती है । प्रमोद : दूसरों के गुणों को देख कर प्रसन्न होना । __ अपने गुणों को देखकर प्रसन्न बहुत हुए हैं, इसीलिए तो मोक्ष नहीं मिला । करुणा : दूसरों के दुःख पर अनुकम्पा । अपने दुःख पर अनुकम्पा बहुत की है । दूसरों की कब की ? मध्यस्थता-निर्गुणों के प्रति भी तटस्थता, तिरस्कार नहीं । इसका अर्थ यह हुआ कि दूसरों के विचार से ही धर्म का जन्म होता है । निपट स्वार्थ-वृत्तिवाले जीव धर्म के आराधक बन नहीं सकते । स्नान करने के पश्चात् गृहस्थों में ताजगी आती है, उस प्रकार जिनालय में जाकर चैत्यवन्दन करने के पश्चात् ताजगी आनी चाहिये, आनन्द के उल्लास का अनुभव होना चाहिये । - भक्ति में उल्लास बढ़ता है, उस प्रकार आत्मानुभूति की शक्ति बढ़ती है। नित्य-नित्य उल्लास बढ़ना चाहिये । अब से उल्लास बढ़ायें । यह पुस्तक पढ़ने से मेरे जीवन में असंख्य लाभ हुए । - साध्वी दिव्यरेखाश्री (१८00mmans ass o sasasana कहे कलापूर्णसूरि - ३)
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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