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________________ * यह तो बिना शर्त के सुनने को मिलते हैं अतः इतनी संख्या में आते हैं । यदि सम्पूर्ण पाठ पक्का करने की शर्त हो तो कितने लोग आओगे ? यद्यपि मैं तो मानता हूं कि आप सबका उपकार है । इस प्रकार मुझे तो लाभ ही है । मेरा पाठ पक्का होगा । अन्यथा आज आगम सुनने वाले कितने हैं ? * पूर्वाचार्य लिखने से पूर्व इष्टदेव, श्रुतदेवता आदि को नमस्कार करते थे तथा दुर्जन को भी याद करते थे। रत्नाकरावतारिका के मंगलाचरण के श्लोक में दुर्जनों को याद करने का कारण बताते हुए कहा है कि दुर्जन तो उपकारी हैं । ये नहीं हों तो भूल कौन निकालेंगे ? * हरिभद्रसूरिजी यहां दो प्रयोजन बताते हैं - अनन्तर एवं परम्पर । (१) अनन्तर प्रयोजन : वक्ताओं का प्रयोजन जीवों पर अनुग्रह। श्रोताओं का प्रयोजन अर्थ - बोध । __ अपना कार्य सिद्ध होने के पश्चात् वैसे ही बैठे नहीं रहना है, दूसरों को देना है । दुकान में कोई ग्राहक नहीं आये तो व्यापारी विज्ञापन आदि करता है, उस प्रकार आपके पास कोई श्रोता न आयें तो क्या कोई प्रयत्न करेंगे ? सिद्धर्षि गणि ने उपमिति में स्पष्ट लिखा है - 'मेरे जैसे बेकार व्यापारी के पास कौनसा ग्राहक माल लेने आता है। मेरे जैसे के पास आनेवाले को अपनी प्रतिष्ठा कम होती प्रतीत होती है । अतः मैंने तो लकड़ी की पेटी में उत्तम पदार्थ डाल कर वह पेटी बाजार के मध्य में रख दी है। जिसे चाहिये वह ले जाये ।। दूसरों को समझाते हुए, 'मेरा कुछ नहीं होता, मेरे लिए कुछ करता नहीं है ।' ऐसा विचार आये तो समझें, अभी स्व-पर का भेद गया नहीं है। यहां कौन पराया है ? हम सभी एक डाल के पक्षी हैं । स्व-पर के भेद विद्यमान हैं इसका अर्थ यही है कि अपनी चेतना अभी विशाल नही बनी । (१४ as soon as soon as an ass कहे कलापूर्णसूरि - ३
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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