SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 349
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यह दृश्य देखकर विचार आता है कि एक व्यक्ति की कितनी शक्ति है ? पूज्यश्री की वाचना में एक बार सुना था, 'सर्वार्थसिद्ध से लगा कर निगोद के जीवों में से एक जीव के एक भी प्रदेश की पीड़ा हम सबकी पीड़ा है, यह लगना चाहिये ।' यह है जीवमैत्री की पराकाष्ठा ! ऐसे पुण्य-पुरुष के साथ अपन भी शीघ्र मुक्ति में जायें, वैसी आशा-अपेक्षा के साथ । पूज्य मुनिश्री धुरन्धरविजयजी : वागड़ सात चौबीसी धर्मशाला तो हमारे लिए तीर्थ स्थल बन गई है, जहां चतुर्विध संघ के समस्त सदस्य अनेकबार एकत्रित हुए हैं । यह तो समवसरण था जिसकी बार-बार रचना हुई । समवसरण की रचना वहीं होती है जहां भगवान उपस्थित होते हैं । - पूज्य कलापूर्णसूरिजी ने जन्मान्तरीय साधना के द्वारा भगवान के साथ की एकता सिद्ध की है । दिखाव में देह उनकी है, परन्तु भीतर भगवान बिराजमान हैं । यह प्रभाव व्यक्ति का नहीं है, उनके भीतर विद्यमान भगवान का है । इसके बिना इतना प्रभाव सम्भव हो ही नहीं सकता । पूज्य श्री का एक ही प्रयास है कि भगवान का शुद्ध स्वरूप हमारे भीतर प्रकट हो । यह शुद्ध स्वरूप हमने प्राप्त नहीं किया, इसीलिए भटक रहे हैं । भगवान सर्वत्र हैं ही, मात्र उसकी अनुभूति की आवश्यकता है । यदि यह हो जाये तो कोई भी दर्द अथवा दुःख रह नहीं सकता । पौद्गलिकता के वर्तमान वातावरण में अहंकार तीव्र है । इसके लिए नमस्कार भाव की तीव्र आवश्यता है । यह मिशन लेकर ही पूज्य श्री बैठे हैं । इनका आवाज नहीं पहुंचता तो भी आप शान्ति से बैठे हैं । जो भीतर भगवान के वास के प्रभाव से बैठे हैं । मात्र कलापूर्णसूरि को नहीं, उनके भीतर भगवान को देखो । जब अचेतन पत्थर में भगवान देखे जा सकते हैं तो (कहे कलापूर्णसूरि ३ WWWळ ३१७
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy