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________________ शिवा शब्द भी है। यह भावना भावित बनायें तो ही भगवान के भक्त बन सकते हैं । हमारे समस्त प्रतिक्रमणों में यह भावना है ही । 'इरियावहियं' में भी है ही । क्षमा-मैत्री जुडे हुए हैं। सम्पूर्ण जैन-शासन करुणामय पर्दूषण तथा उनके कर्तव्य सांवत्सरिक क्षमापना के लिए ही तो हैं । परस्पर क्षमा के लिए ही यह आयोजन था । परन्तु चढ़ावों में आप यह सब भूल गये । यद्यपि लोगों के उठने से तो मेरे लिए अच्छा ही हुआ, क्योंकि थोड़े मनुष्यों तक ही मेरी आवाज पहुंचती है। __मेरी ओर से कि किसी महात्मा की तरफ से किसी को भी कष्ट अथवा पीड़ा हुई हो तो उसके लिए समस्त महात्माओं की ओर से मैं मिच्छामि दुक्कडं मांगता हूं। इस पुस्तक को पढ़ने से सर्वाधिक तो गुरुदेव के प्रति आदर-भाव था, उसमें वृद्धि हुई है और अन्तर झुक गया । गुरुदेव इतने महान् हैं कि जिन्हों ने छोटेछोटे सूत्र जो निर्दोष अवस्था में ही पोपट की तरह कण्ठस्थ किये हों और रुटीन में भी बोलते रहते हों, उनके लिए निरन्तर उपयोगपूर्वक एवं चिन्तनपूर्वक कैसे रहस्य खोले हैं ? नवकार, लोगस्स अथवा शकस्तव की महानता इन वाचनाओं को पढ़ने के बाद ही समझ में आई । __ - साध्वी विरागरसाश्री पूज्यश्री का प्रत्येक शब्द आत्मा में भगवद्भाव उत्पन्न करके अन्तिम शुद्धावस्था का स्थान बताने के R लिए समर्थ बनता है । __- साध्वी पुष्पदन्ताश्री (२९६ Homoooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ३)
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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