SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 253
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बार कर सकते हैं। अतः अब आप निश्चय कर लें कि मुझे बीजाधान तो कर ही लेना है । मैं पूछता हूं कि क्या आपको ये ग्रन्थ पढ़ने-सुनने में आनन्द आता है ? आनन्द कितना और कैसा आता है ? इस पर से आपकी भूमिका निश्चित होती है । क्षायिक की बात जाने दें । क्षायोपशमिक भाव के गुण तो आ ही गये हैं न ? * भगवान के प्रेम के अतिरिक्त दूसरा कोई भी योग का मार्ग नहीं है। भगवान के प्रति प्रेम नहीं जगा हो तो समझें कि अभी तक संसार का प्रेम विद्यमान है, अन्य कोई उद्देश्य बैठा है । प्रभु-प्रेम की अनुपस्थिति ही बताती है कि अभी तक अन्य आकांक्षाएं भीतर विद्यमान हैं । ये सभी अत्यन्त ही खतरनाक भयस्थान हैं । सभी सामग्री अपने सामने हैं । केवल अपने उद्यम की कमी है, परन्तु हम तो प्रतीक्षा कर रहे हैं कि शीघ्र महाविदेह में जन्म मिल जाये और मोक्ष में चले जाये, परन्तु किस आधार पर महाविदेह मिलेगा ? इसका विचार करते नहीं हैं । वर्तमान में प्राप्त सामग्री का उपयोग नहीं करने वाला व्यक्ति भविष्य में उससे उत्तम सामग्री प्राप्त कर नहीं सकता । वर्तमान में प्राप्त रोटी खाकर जो व्यक्ति जीवन व्यतीत नहीं कर सकता उसे भविष्य में गुलाबजामुन कैसे मिल सकेंगे ? जो व्यक्ति जीवित ही नहीं रहे, वह गुलाबजामुन कैसे प्राप्त कर सकता है ? * मरुदेवी को जिस प्रकार ऋषभ पर प्रेम था, उस प्रकार त्रिशला को भी वर्धमान पर प्रेम था । उन्हों ने भी बालक रूप में भगवान का ध्यान किया, यह कहा जा सकता है ! अन्य दर्शनों में पुत्रों के नाम नारायण इत्यादि इसलिए रखतें हैं कि उसे भगवान याद आते रहें । पूज्य हेमचन्द्रसागरसूरिजी : त्रिशलाजी तो देवलोक में गई । पूज्यश्री : जाती हैं । तीर्थंकर की माता मोक्ष में या स्वर्ग में जाती है । त्रिशलाजी बाद में मोक्ष में जायेंगी । भगवान का प्रेम. ही उन्हें मोक्ष में ले जायेगा । कहे कलापूर्णसूरि -३00mmonsomwwwwwwwwna २२१)
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy