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________________ आजीवन अंतेवासी एवं पूज्यश्री के आंतरिक गुणों को जीवन में उतारनेवाले पू.पं.श्री कल्पतरवि. के साथ १२-८-२०००, शनिवार सावन शुक्ला प्रथम १३ * इस जन्म में विश्वास हो जाये कि 'अब मेरा भवपरिभ्रमण का भय चला गया ।' ऐसी साधना कर लें । 'आज भव-भ्रमण का भय मिट गया ।' ऐसे उद्गार कब निकलते हैं ? अनुभवी महापुरुषों के ग्रन्थ पढ़ें । उनकी कृतियों में ऐसा आत्म-विश्वास छलकता प्रतीत होगा । एकेन्द्रिय जीवों के लिए भी भावना भानी है कि वे मानवजन्म प्राप्त करके शीघ्र मोक्ष प्राप्त करें । ('एकेन्द्रियाद्या अपि हन्त जीवा' - विनयविजयजी, शान्तसुधारस) परन्तु हम तो अपनी आत्मा के लिए भी ऐसी भावना नहीं भाते । भगवान का स्वभाव है कि 'जो शरण में आये उसका भव-भ्रमण दूर करना ।' भगवान का 'भविनां भवदम्भोलिः ।' विशेषण है । एक ही गेहूं के आटे से विविध प्रकार की मिठाईयां बनती हैं, उस प्रकार एक ही मुद्दे 'भव-भ्रमण का भेद' पर विभिन्न प्रकार के शास्त्र रचे गये हैं । |१८६ Cartoonstantmasootram कहे कलापूर्णसूरि - ३]
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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