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________________ हैं तो पेट भर कर दर्शन करने दे । विमलनाथ के स्तवन में दर्शन होने का आनन्द है - 'विमल जिन दीठा लोयण आज...' * पुदगलास्तिकाय जिस प्रकार द्रव्य रूप में एक है उस प्रकार जीवास्तिकाय भी एक ही द्रव्य है, जिसमें निगोद से सिद्ध तक के समस्त जीव आ गये । एक भी जीव बाकी नहीं है । इन जीवों को आत्मवत् देखना है । 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' आगे बढ़कर कहूं तो जीवों को परमात्मतुल्य देखना है । यह कक्षा आने के पश्चात् भेद समाप्त हो जायेगा । * इस समय जिसप्रकार एकत्रित होकर कार्य करते हैं उस प्रकार सदा के लिए एकत्रित होकर कार्य किया जाये तो जैनशासन का जयजयकार हो जाये । यहां मेरे-तेरा का भेद कैसा ? * योग अर्थात् ध्यान, समाधि आदि । संक्षेप में मोक्ष के सभी साधन योग हैं । जो भगवान के साथ जोड़ दे वह योग है । भक्ति भी योग है जो भगवान के साथ जोड़ देती है। तस्मिन् परमप्रेमरूपा भक्तिः ।' - नारदीय भक्तिसूत्र * व्यवहार से सम्यग्दर्शन विनय है ।। चैत्यवन्दन आदि विनय के सूचक हैं । समकित के सड़सठ भेदों को देखें, देव-गुरु का परम विनय ही दृष्टिगोचर होगा । पांच शंका-दूषण टालने से तात्पर्य है देवगुरु के प्रति अविनय टालना । सुनने की इच्छा शुश्रुषा । शुश्रुषा होती है वहां ज्ञान आता ही है। अनुष्ठानों की आराधना सम्यक् चारित्र है । तात्पर्य यह कि विनय से सम्यग्दर्शन, शुश्रुषा से सम्यग्ज्ञान और अनुष्ठानों की आराधना से सम्यक्चारित्र प्राप्त होता है । * 'योगविंशिका' का सम्पूर्ण सार 'ज्ञानसार' के योगाष्टक में मात्र आठ श्लोकों में बताया है। उसमें लिखा है - चैत्यवन्दन आदि में स्थान आदि का उपयोग करना । (कहे कलापूर्णसूरि - ३ 0000000000000000 १८१)
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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