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________________ श्री चन्द्रप्रमुजैन नया मा पदवी प्रसंग, वि.सं. २०५२, माघ सु. १३ ६-८-२०००, रविवार सावन शुक्ला -७ सात चौबीसी मण्डप ( सामूहिक शंखेश्वर अट्ठम का प्रारम्भ ) (शQजय तप का प्रारम्भ ) ('ॐ ह्रीं श्रीं अहँ शंखेश्वर पार्श्वनाथाय नमः ।' की पांच मालाएं सामुदायिक रूप में बोली गई ।) पूज्य आचार्यश्री विजयकलापूर्णसूरिजी : * पालीताना चातुर्मास पर रहा चतुर्विध संघ एकत्रित हुआ है । आराधना निर्विघ्न सम्पन्न हो उसके लिए सामूहिक रूप से श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ भगवान का जाप कर रहे हैं ।। * तीनों प्रकार के (चतुर्विध संघ, द्वादशांगी, प्रथम गणधर) तीर्थों की स्थापना करने वाले तीर्थंकर हैं । प्रथम गणधर भी तीर्थ है अर्थात् गुरुत्व की स्थापना स्वयं तीर्थंकरों के द्वारा हुई है । भगवान गणधरों के गुरु हुए न ? इसलिए भगवान, भगवान भी हैं और गुरु भी हैं । स्थापना' अर्थात् अपनी शक्ति का न्यास करना । अजैनों में शक्तिपात शब्द प्रचलित है । पात अर्थात् पतन । यहां स्थापना (कहे कलापूर्णसूरि - ३ asam १४५)
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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