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________________ पोलिसी (माया) के बिना तो चल ही नहीं सकता । क्या लोभ के बिना कमाया जा सकता है ? क्या क्रोध के बिना दूसरों पर थोडा नियन्त्रण रहेगा ? मान के बिना तेज कैसा ? यही इसकी विचारधारा है । उसे कषाय अत्यन्त ही प्रिय कषाय प्रिय लगना अर्थात् संसार प्रिय लगना । कषाय ही संसार का मूल है। कषाय प्रिय लगते हों तो अब इतना करें । क्रोध करना हो तो क्रोध पर ही करें । अभिमान आत्मगुणों का करें । माया के साथ ही माया करें । ज्ञान आदि का लोभ रखें । काम हो जायेगा । ये प्रशस्त कषाय हैं । अप्रशस्त कषायों को प्रशस्त कषायों से ही जीते जा सकते बद्धि एवं श्रद्धा बुद्धि दाखला दलीलें करके संघर्ष खड़ा करती है । श्रद्धा के द्वारा आत्मा परमात्मा में डुबकी मारती है, तब समाधि प्राप्त करती है। बुद्धि द्वारा निर्णय किया हुआ ज्ञान कथंचित् व्यवहार में सच्चा हो सकता है। आत्मज्ञान के द्वारा प्रकट होता ज्ञान सर्वदा सच्चा होता है । उसे दाखला दलीलों (तर्को) के द्वारा या किसी प्रयोगशाला में जांच करने की आवश्यकता नहीं रहती २क्योंकि वह सर्वज्ञ के स्रोत में से प्रकट हुआ है । (कहे कलापूर्णसूरि - ३00oooooooooooooooo00 १३९)
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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