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________________ (२) स्व-पर शास्त्रों के ज्ञाता । (३) पर-हित में तत्पर । (४)सामने वाले के आशय के ज्ञाता । गुरु केवलज्ञानी थोड़े ही हैं जो दूसरों का आशय समझ लें ? केवलज्ञान चाहे न हो, केवलज्ञानी का सहारा तो है न ? कई बार श्रोतागण मुझे कह कर जाते हैं कि हमारे ही मन की बातें आपने कह दी । हमारे मन का समाधान हो गया । शिष्य किस आशय से अवकाश मांगता हो? गुरु उसे बराबर समझ जाते हैं । चाहे वे बोलें नहीं । मैं पहले स्पष्टीकरण कर देता हूं कि मुझमें चारों में से एक भी गुण नहीं है। कदाचित् आप ये पूछे कि फिर व्याख्या करने क्यों बैंठे? तो मैं कह दूं - पूज्य हरिभद्रसूरिजी की टीका, पूज्य मुनिचन्द्रसूरिजी की पंजिका, पूज्य भुवनभानुसूरिजी की व्याख्या मेरे सामने है। उन पर बहुमानपूर्वक बोलता हूं। अन्यथा, मुझ में शक्ति कहां है ? मेरी भूलों के लिए आप मुझे क्षमा करें। उमास्वाति महाराज कहते हैं : मैंने भिखारी की तरह दाने चुन-चुनकर सब एकत्रित किया है। मैंने भी इसी प्रकार से एकत्रित किया है। हमें गौतम स्वामी जैसे गुरु चाहिये । इसीलिए प्राप्त गुरु का विनय नहीं करते । परन्तु हम जानते नहीं है कि गौतम स्वामी जैसे गुरु के शिष्य बनने की भी योग्यता चाहिये न? अपनी योग्यता का हम विचार नहीं करते । वर्तमान समय में प्राप्त गुरु का बहुमान करोगे तो आगामी भव में गौतम स्वामी जैसे गुरु मिलेंगे । यशोविजयजी को अपने गुरु नयविजयजी के प्रति कितना बहुमान था ? विनयविजयजी तो अपने गुरु कीर्तिविजयजी के नाम को मन्त्र मानते थे । इस प्रकार का गुरु के प्रति बहुमान हो तो ही ज्ञान आता है। गुरु का बहुमान करने से ज्ञान प्राप्त हुआ है, इसलिए यह गुरु का कहलाता है ।। (कहे कलापूर्णसूरि - ३ ommoooooooooooooo ११३)
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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