SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 117
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समय भी वह गुण सक्रिय है, यह मानना रहा । * पू. हरिभद्रसूरिजी ने १४४४ ग्रन्थों की रचना क्यों की होगी ? उस युग में अनेक दूध में से पौरे निकालने वाले यह पूछते भी थे कि आगम में सब है ही, आपको नवीन प्रकरण ग्रन्थों की रचना करने की क्या आवश्यकता है ? उनका उत्तर था - आपकी बात सत्य है, परन्तु सबके पास उनका अर्क निकालने की शक्ति नहीं होती, कितनेक व्यक्तियों को गुरुगम भी नहीं मिलता, इसलिए ये रचना करता हूं । तदुपरान्त जो मिला है वह दूसरों को देने से ही सानुबंध बन कर भवान्तर में सहगामी बनता है । जो देते हैं वह रहता है । जो नहीं दें, वह नहीं रहता । हरिभद्रसूरिजी मानते थे कि सिद्धि के बाद विनियोग चाहिये । * 'ललित विस्तरा' में यहां भगवान के सद्भूत विशेषण हैं । अपने जैसे नहीं । मेरा ही नाम 'कलापूर्ण' है, परन्तु मैं कहां कलापूर्ण हूं ? कला + अपूर्ण = कलापूर्ण हूं। कलापूर्ण तो भगवान हैं । भगवान की भक्ति से कलापूर्ण बन सकूँगा, इतना विश्वास है । पू. हेमचन्द्रसागरसूरिजी : सत्तागत तो है ही । परन्तु यह नहीं चलता । उधार के पैसे व्यवहार में चलते हैं ? उसके पास आप पैसे ले लेना, किसी को ऐसे कहें तो क्या चलता है ? संग्रहनय हमें पूर्ण कहे तो नहीं चलता, एवं भूत कहे तो चलता है । संग्रह का उधार खाता है । एवं भूत पूरी तरह रोकड़ में विश्वास रखता है । शब्दनय तक पहुंच जायें तो भी पर्याप्त है। * कोई भी नाम अथवा पदार्थ अनन्त धर्मों को बताता है, परन्तु वे सब धर्म एक साथ नहीं बोले जा सकते । एक की मुख्यता से ही बोला जाता है । उस समय अन्य धर्मों को गौण रखना पड़ता है। कान्ति के विवाह के समय कान्ति के गीत गाये जाते हैं, बडे भाई (ज्येष्ठ भ्राता) शान्ति के गीत नहीं गाये जाते, जिससे वह अप्रसन्न भी न हो । उस प्रकार यहां अन्य को गौण करके कहे कलापूर्णसूरि - ३ namasaramommmmmmmoooooooo ८५)
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy