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________________ * जीवन अमूल्य है या समय ? समय ही जीवन है । व्यतीत होते हुए समय को यदि सार्थक नहीं कर सकें तो जीवन निरर्थक हो जायेगा । जीवन-मरण बंध हो जाये वैसी साधना करें, यही हमारा लक्ष्य होना चाहिये । देह छूटने से पूर्व देहाध्यास छूटे, आत्म-परिणाम निर्मल रहें, उतनी शुभेच्छा की याचना करता हूं । हृदय के परिणाम निर्मल रहें । निर्मलता के अतिरिक्त कुछ भी उपार्जन करने योग्य नहीं है । तप-जप आदि भी निर्मलता के लिए ही हैं । समता तो फल है । निर्मलता साध्य है, समता नहीं । यदि निर्मलता नहीं होगी तो समता नहीं आयेगी । आज सकल संघ के समक्ष एक ही प्रार्थना है - निर्मल जीवन यापन करने में श्री संघ सहायक हो । नूतन गणिश्री पूर्णचन्द्रविजयजी ऐसा प्रभु-शासन पाकर ऐसे चतुर्विध संघ के समक्ष ऐसा प्रसंग पाकर अपार आनन्द की अनुभूति होती है । तीर्थ की, चतुर्विध संघ की महिमा अपरम्पार है। तीर्थंकर भी 'नमो तित्थस्स' कह कर उसे नमस्कार करते हैं । जब तक शासन रहेगा तब तक संघ अखण्ड रहेगा । भगवान महावीर की पाट पर आये हुए सुधर्मास्वामी इत्यादि की परम्परा के हम पर उपकार हैं । सचमुच आज मैं क्या बोलूं ? मुझ में क्या है ? लघु वय थी । इन गुरुदेव ने हाथ पकड़ा । मेरी माताजी चंदनबेन आज जीवित नहीं हैं। उन्होंने ही अपार वात्सल्य से दीक्षा ग्रहण करने की प्रेरणा दी थी । * ज्वैलर की दुकान में जाओ तो सब कुछ खरीदा नहीं जा सकता । गंगा का जल सारा ही नहीं मिलता । सागर के समस्त रत्न नहीं मिलते, परन्तु एक रत्न भी मिल जाये तो भी कार्य हो जाये । गुरुदेव के अनेक गुणों में से एक गुण भी मिल जाये तो भी कार्य हो जाये । कहे कलापूर्णसूरि - २ 05500000000000000066; २३)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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