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________________ गुण रूपी रत्नों के महासागर पूज्य श्री के पास नत मस्तक होकर याचना है आज आपने जो पद प्रदान किया है, उस पद के साथ कृपया योग्यता भी प्रदान करें । प्रदक्षिणा देने के समय मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि ये चावल नहीं बरस रहे, पर शुभ भावों की वृष्टि हो रही है । चतुर्विध संघ का आशीर्वाद ही हमारा महत्त्वपूर्ण परिबल है । हम पदस्थ ही नहीं परन्तु स्वस्थ बनें । “स्व में बस, पर से हट, इतना बस..." इस सूत्रको हम आत्मसात् करे; अन्तर्मुखी चेतना प्रकट हो, बहिर्मुखी चेतना लुप्त हो, ऐसी आज के दिन कामना है । — 'सूर्यमुखी दिन में खिलता है, परन्तु रात में नहीं । चन्द्रमुखी रात में खिलता है, परन्तु प्रभात में नहीं । अन्तर्मुखी प्रति पल खिलता ही रहता है, क्योंकि उसकी प्रसन्नता किसी के हाथ में नहीं ।' विराट मानव - सागर देखकर अपार आनन्द होता है, ही साथ योग्यता का अभाव भी प्रतीत होता है । परन्तु साथ संघ, शासन एवं समुदाय का गौरव बढ़े ऐसी शक्ति के लिए श्रमण प्रधान श्री संघ से प्रार्थी है । इस जिन - शासन की गरिमा बढ़े, जिन - शासन की सेवा में जीवन लीन बने । वस्तुपाल की भाषा में कहूं तो यन्मयोपार्जितं पुण्यं, जिनशासन - सेवया । जिन - शासन - सेवैव, तेन मेऽस्तु भवे भवे ॥ "जिनशासन की सेवा के द्वारा अर्जित पुन्य से प्रत्येक भव में मुझे जिनशासन की सेवा प्राप्त हो ।" दक्षिण में पदवी के लिए अनेक संघों की विनती थी, परन्तु लाभ कच्छ को मिला । इस समुदाय का गौरव बढ़े, पूज्य कनक- देवेन्द्रसूरिजी के समुदाय का गौरव बढ़े, ऐसी हमारी वृत्ति - प्रवृत्ति हो । लौकिक डिग्री मिलने पर अहंकार बढता है, परन्तु इस लोकोत्तर पद से नम्रता बढती रहे यही शुभेच्छा है । स्वस्थ, गुणस्थ बनें, यही इच्छा है । २४ 6000 wwwwwwwwww कहे कलापूर्णसूरि
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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