SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 178
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सामानिक देव बना; जबकि दूसरा अल्प ऋद्धिवाला सेवक देव (किल्बीषिक) बना । इसका कारण क्या ? इसका कारण साधना में अन्तर । हमारी हीन साधना हमें उच्च गति में ले जायेगी, ऐसे भ्रम में न रहें । * सतत शुभ-ध्यान कदाचित् हम न रख सकें, परन्तु सतत शुभ लेश्या अवश्य रख सकते हैं । ध्यान तो अन्तर्मुहूर्त तक ही रहता है, परन्तु लेश्या सतत रहती है। ध्यान चार ही हैं, जबकि लेश्या छ: हैं । अशुभ ध्यान से अशुभ लेश्या प्रबल बनती है । शुभ ध्यान से शुभ लेश्या प्रबल बनती है । ध्यान के द्वारा शुभ लेश्या को प्रबल बनानी है । शुभ ध्यान एवं शुभ लेश्या में प्रयत्न नहीं करें तो अशुभ ध्यान तथा अशुभ लेश्या तो चालु ही हैं । __ लेश्या तेरहवे गुणस्थान में जाती है, परन्तु ध्यान चौदहवे गुणस्थान तक रहता है । * कषाया अपसर्पन्ति, यावत्क्षान्त्यादिताडिताः । तावदात्मैव शुद्धोऽयं, भजते परमात्मताम् ॥ - योगसार क्षमा आदि से कषाय आदि को ज्यों ज्यों हटाते जाओगे, त्यों त्यों ध्यान एवं लेश्या शुभ बनते जायेंगे । ज्यों ज्यों क्षमा आदि बढते जायें, त्यों त्यों क्रोध आदि हटते जायेंगे । जिस प्रकार वीर योद्धा तीरों का प्रहार करता जाये और शत्रु-सेना पीछे हटती जाये । __ भगवान का प्रतिबिम्ब आपके मन पर पड़ता है, परन्तु कब ? जब मन मलिन न हो, निर्मल हो । मन को शुभ बनाने के लिए कषाय आदि हटाने आवश्यक है । हम कषायों को नष्ट करने का प्रयत्न करते हैं, परन्तु कषाय ऐसे हमको क्यों छोडें ? पुनः वे एकत्रित होकर आक्रमण करते हैं । चेतना हार जाती है, भीतर विद्यमान प्रभु का प्रतिबिम्ब धुंधला हो जाता है, चला जाता है । इसी लिए जब तक कषायों का पूर्णतः क्षय न हो तब तक विश्वास करने योग्य नहीं है । (१५८wwwwwwwwwwwwmoms कहे कलापूर्णसूरि - २
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy