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________________ * “तप-तेज दीपे, कर्म जीपे, नैव छीपे पर भणी ।" तप के तेज से दीप्त मुनि कर्म को जीत सकते है । तप के बिना कर्म-कषाय जीते नहीं जा सकते ।। ऐसे मुनि संसार में कदापि लालायित नहीं होते । साधुत्व तो मिल ही गया है । मुण्डन कर ही लिया है तो ऐसे सच्चे मुनि क्यो न बनें ? । * 'बाह्य तप की मुझे कोई आवश्यकता नहीं है। मुझे आत्मा मिल गई है, यह सोचकर व्यवहार कदापि छोड़ मत देना । अन्यथा उभय भ्रष्ट हो जायेंगे । निश्चय मिलेगा नहीं और व्यवहार चला जायेगा । निश्चय दृष्टि हृदय में रखनी है । व्यवहार दृष्टि आचरण में लानी है । तो ही मुक्ति के पथिक बन सकेंगे । "निश्चय दृष्टि हृदये धरीजी, जे पाले व्यवहार; पुण्यवंत ते पामशेजी, भव-समुद्र ने पार" * 'जिम तरु फूले ।' भौंरा पुष्प को तनिक भी पीड़ा न हो, उस प्रकार पुष्प का रस चूसता है । उसी प्रकार से मुनि गोचरी वहोरता है। किसी को लगता ही नहीं कि मुनि महाराज मेरे घर से गोचरी ले गये । कदाचित् ऐसे क्षेत्र में आकर गोचरी पाना संभव न हो तो भी यथा संभव दोषों का परिहार करना चाहिये । * तिथि के दिन केले में अल्प दोष होते हुए भी मूंग आदि का उपयोग होता है, उसमें आसक्ति न हो, यह कारण है। इसी प्रकार से भाता खाते का आहार निर्दोष होने पर भी आसक्ति के कारण पूज्य कनकसूरिजी वर्जित मानते थे । * 'हे छः जीव निकाय के जीवो ! आज से मैं आप को कष्ट नहीं दूंगा, दिलाऊंगा नही, और पीडा देने वाले की अनुमोदना नहीं करूंगा ।" सभा के मध्य में ऐसी प्रतिज्ञा लेकर हम साधु बने हैं । अब यदि छ: जीव निकाय के प्रति हमें दया चली गई तो अपने पास रहा क्या ? करुणा तो हमारा धन है । वह नष्ट हो जाये फिर हम निर्धन कहे कलापूर्णसूरि - २00mmom DOW056668 १५९)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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