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________________ दशम अध्याय व्याख्या। "प्रह्लादश्चास्मि दैत्यानां"। प्रह्लाद-(प्र- ख्याति + हाद=श्रालादित होना+अन् ) जो आह्लाद ( खुसियाली) के लिये ख्यातिमान् है, वही 'प्रह्लाद' है। ___ दैत्य-दितिसे जिस वंशकी उत्पत्ति है । दिति पुत्र-कामनाके लिये अनार्य-समयमें कश्यपके पास जाती थी; इसलिये उनसे असत् वंशकी उत्पत्ति हुई। असत्का अस्तित्व नहीं है, इसलिये यह वंश मरधी है। किसी समय में इस वंशके किसी एक पुरुषने सज्जन (नारद ) की कृपासे असत्का 'अ' लोप कर दिया था; तब उसमें सत् मात्र विद्यमान था। सत्में क्षयोदय नहीं है। विष्णुहो सत् शब्दका वाच्य वा बोधक है। 'हाद' विष्णुमें ही प्रतिष्ठित है। दितिके वंशमें उस हाद रूप विष्णुका अधिष्ठान जिस पुरुषमें हुआ था, उन्हींको 'प्रह्लाद' कहते हैं। वही प्रह्लाद 'मैं' हूँ। 'कश्यप'-कश्य अर्थमें मद्य है, जो मतवाला करादे; और 'प' पान करनेको कहते हैं । साधक ! तुम अपने भीतर प्रवेश करके मिला लो। जब सुधाधारा विलोम गति लेकर तुमको मतवाला करती है, तब तुम्हारे अन्तःकरणमें किसी क्रियाका भी स्फुरण नहीं रहता, अथच तुम निष्क्रिय भी नहीं होते। तुम अपनी इस अवस्थाको ही कश्यपअवस्था जानो। इस निष्कलंक अवस्था में पूर्वकृत विषय भोगके संस्कारका उदय होनेसे कभी कभी तुम्हारे उस स्थिरत्वमें जो कम्पन आता है, वही तुम्हारी दिति-अवस्था है। इस समय तुम्हें थोडासा बाह्य दिशामें होश रहता है, और अपरूप सुवर्णमय भीषण न्योति तुमको ग्रास कर ढांक लेता है; तुम्हारी यह अवस्था ही हिरण्यकशिपुअवस्था है। हिरण्य शब्दमें सुवर्ण, और कशिपु प्रास-आच्छादनको कहते हैं। तुमको अधीन करनेके लिये प्रकृतिकी यह मनोहारिणी चेष्टा भी जब विफल हो जाती है, उस विफलताको अनुभव करके तुममें जो अपूर्व हर्षोत्पत्ति होती है, वह हर्ष ही 'प्रह्लाद' है।
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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