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________________ श्रीमद्भगवद्गीता ___'कालः कलयतामहम्। 'कलयता' =वशीकरियों में । मणि मन्त्र महौषधिसे भी वशीकरण होता है। जितने प्रकारकी वशीकरी शक्ति हैं, उन सबके भीतर मैं सर्ववशी 'काल' हूँ। __ काल-'क' शब्दसे ब्रह्मलोकका बोध होता है, 'श्रा' शब्दसे अन्तरीक्ष, 'ल' शब्दसे पृथ्वी । ये तीनों मिलकर भूवनकोष हैं। इसके भीतर जो कुछ पदार्थ हैं सो सब इस कोषके वशीभूत हैं, अर्थात् उत्पत्ति, स्थिति, लप इसी कोषके भीतर होती है। जो जहाँ है सो उसी स्थानमें ही काम करता है, अपना स्थान छोड़कर हटनेका अधिकार किसीको नहीं। फिर यह कोष भी हममें ही प्रतिष्ठित है। अतएव वशीकरियोंके भीतर काल रूपसे 'मैं' ही विद्यमान हूं। 'मृगाणां च मृगेन्द्रोऽह' । मृग कहते हैं पशुको। पशुओंके भीतर मृगराज सिंह मैं हूँ,-(जो कूटस्थमें देखा जाता है) अन्तर्लक्ष्य करके -मृगशब्दमें याचना; याचना समूह के भीतर श्रेष्ठ है मुमुक्षुता। __-'वैनतेयश्च पक्षिणाम्' । वैनतेय-विन ताके गर्भजात अण्डज गरुड़। विनता का अर्थ विशेष नम्रशील है। साधक ! तुम देखो, क्रिया करते करते तुम्हारी दो अवस्था होती हैं। एक अधः, दूसरी ऊर्ध्व। जब फच कम्र्मेन्द्रिय पच ज्ञानेन्द्रिय और पञ्च प्राण लेकर मन बहिमुखी वृत्तिमें विषय भोग करनेके लिये पाचभौतिक स्थूलशरीरका आश्रय लेता है उसे ही कृष्ण गति; अर्थात् अविनता अवस्था कहते हैं। और जब तुम बहिर्वृत्ति समेट कर ऊर्ध्वमुखमें शुक्लगति लेते हो, तब तुम इन पन्च ज्ञानेन्द्रिय, पन्च कर्मेन्द्रिय और पञ्च प्राणको लेकर (तुम्हारे स्थूलशरीरके साथ जाग्रतावस्थाको परित्याग करके ) सूक्ष्म शरीर में क्रिया करते हो; वही तुम्हारी विनता अवस्था है। इस समय तुम एक प्रकार स्वप्नवत् अवस्थामें रहकर कूटस्थका अण्डाकार स्थानमें सुन्दर पर वाले सोनेके रंगका जिस पक्षी को देखते हो, वही गरुड़ है; विषय रूप विषको यही नाश करता है,
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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