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________________ ३८ श्रीमद्भगवद्गीता होकर आशीर्वाद करते हैं । स्थूलदेहसे अलग ज्योतिर्मय स्वस्वरूपका दर्शन कूटस्थमें होता है इससे वह अर्यमा भी 'मैं' हूँ। .... 'यमः संयमतामहम्'। 'यम' कहते हैं संयमनी-पुरके अधिपति को। यम् - निवृत्ति करवाना + अन्=संज्ञा; अर्थात् जो निवृत्ति करवाते हैं वही यम हैं। निवृत्ति कहते हैं अन्तःकरण की वृत्तिशन्य अवस्थाको। प्रत्याहारके बाद धारणा, ध्यान, समाधिके एकत्र समावेश अवस्थाका नाम संयम है। जिस अवस्थामें हिंसा नहीं रहती, सत्य ('सत्यं परहितं प्रोक्तं' ) अचौर्या, ब्रह्मचर्या और अपरिग्रह प्रतिष्ठित रहता है, उसीको 'यम' अवस्था कहते हैं। जीवित रह करके भी जिस अवस्थामें 'मैं' मुर्दा सदृश रहता हूँ, ( मृत्यु नहीं, निद्रा नहीं, मूर्छा नहीं, अज्ञानता भी नहीं, तथापि एक प्रकार कष्टशून्य होकर रहनेके सदृश रहना), जब यह अवस्था अति दीर्घकाल तक स्थायी होती है ( ऐसा कि जब धारणा ध्यान, समाधि भंगकी आशंका तक भी नहीं रहती ), तबही यम अवस्था होती है। संयम छोटा और यम बड़ी अवस्था है। ये दोनों ही हमारी अवस्थायें हैं। इसलिये संयमके भीतर मैं 'यम' हूँ। इस शरीरको ही प्रेतपुर कहते हैं ॥ २६ ॥ प्रह्लादश्चास्मि दत्यानां कालः कलयतामहम् । मृगाणाश्च मृगेन्द्रोऽहं वैनतेयश्च पक्षिणाम् ॥ ३० ॥ अन्वयः। अहं दैत्यानां ( मध्ये ) प्रह्लादः कलयतां ( वशीकुर्वतां ) च मध्ये कालः अस्मि, अहं मृगाणां च ( मध्ये ) मृगेन्द्रः ( सिंहः ) पक्षिणां च ( मध्ये ) वैनतेयः (गरुड़ः अस्मि ) ॥ ३०॥ । अनुवाद। मैं दैत्यगणोंमें प्रह्लाद, वशीकारियों के भीतर काल, मृगगों के भीतर मृगेन्द्र ( सिंह ), और पक्षियों के भीतर गरुड़ हूँ ॥ ३० ॥
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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